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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१०४

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कर्मयोगशास्त्र । ६७ . कि वैद्यकशास्त्र भी शरीररक्षा के द्वारा मोक्षप्राप्ति का साधन होने के कारण संग्र- इणीय है। तो यह कदापि संभव नहीं कि, जिस शास्त्र में इस महत्त्व के विषय का विचार किया गया है कि सांसारिक व्यवहार किस प्रकार करना चाहिये, उस कर्मयोगशास्त्र को हमारे शास्त्रकार आध्यात्मिक मोक्षज्ञान से अलग बतलावें । इसलिये हम समझते हैं कि जो कर्म, हमारे मोक्ष अथवा हमारी प्राध्या त्मिक उन्नति के अनुकूल हो, वही पुण्य है, वही धर्म है और वही शुभकर्म है। और जो कर्म उसके प्रतिकूल हो वही पाप, अधमै अथवा अशुभ है। यही कारण है कि हम ‘कर्तव्य-अकर्तव्य,' कार्य-अकार्य शब्दों के बदले 'धर्म' और 'अधर्म' शब्दों का ही (यद्यपि वे दो अर्थ के, अतएव कुछ संदिग्ध हो तो भी) अधिक उपयोग करते हैं । यद्यपि याय सृष्टि के न्यावहारिक कमी अथवा च्यापारों का विचार करना ही प्रधान विषय हो, तो भी उक्त कर्मों के वाय परिणाम के विचार के साथ ही साथ यह विचार भी हम लोग हमेशा किया करते हैं कि ये च्यापार हमारे आत्मा के कल्याण के अनुकूल हैं या प्रतिकूल । यदि प्राधिभौतिकवादी से कोई यह प्रश्न करें कि मैं अपना हित छोड़ कर लोगों का हित क्यों करूं?' तो वह इसके सिवा और क्या समाधानकारक उत्तर दे सकता है कि " यह तो सामान्यतः मनुष्य-स्वभाव ही है।" इमारे शास्त्रकारों की दृष्टि इसके परे पहुँची हुई है और उस व्यापक आध्यात्मिक दृष्टि ही से महाभारत में कर्मयोगशास्त्र का विचार किया गया है एवं श्रीमद्भगवद्गीता में चेदान्त का निरूपण भी इतने ही के लिये किया गया है। प्राचीन यूनानी पंडितों की भी यही राय है कि 'अत्यन्त हित' अथवा 'सद्गुण की पराकाष्ठा' के समान मनुष्य का कुछ न कुछ परम उद्देश कल्पित करके फिर उसी दृष्टि से कर्म-अकर्म का विवेचन करना चाहिये; और पारस्टाटल ने अपने नीतिशास्त्र के ग्रन्थ (१.७,८) में कहा है कि आत्मा के हित में ही इन सब बातों का समावेश हो जाता है । तथापि इस विषय में प्रात्मा के हित के लिये जितनी प्रधानता देनी चाहिये थी उतनी अरिस्टाटल ने दी नहीं है । हमारे शास्त्र- कारों में यह बात नहीं है । उन्होंने निश्चित किया है कि, आत्मा का कल्याण अथवा आध्यात्मिक पूर्णावस्था ही प्रत्येक मनुष्य का पहला और परम उद्देश है अन्य प्रकार के हितों की अपेक्षा इसी को प्रधान जानना चाहिये और इसी के अनु- सार कर्म-अकर्म का विचार करना चाहिये। अध्यात्मविद्या को छोड़ कर कर्म-अकर्म का विचार करना ठीक नहीं है । जान पड़ता है कि वर्तमान समय में पश्चिमी देशों के कुछ पंडितों ने भी कर्म-अकर्म के विवेचन की इसी पद्धति को स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ, जर्मन तत्वज्ञानी कान्ट ने पहले " शुद्ध (व्यवसायात्मिक) बुद्धि की मीमांसा" नामक प्राध्यात्मिक ग्रन्थ को लिख कर फिर उसकी पूर्ति के लिये "न्यावहारिक (चासनात्मक) बुद्धि की मीमांसा नाम का नीतिशास्त्र विषयक अन्य लिखा है* और इंग्लैंड में भी प्रीन ने अपने नीतिशास्त्र के उपोद्धात

  • कान्ट एक जर्मन तत्त्वज्ञानी था । इसे अर्वाचीन तत्वज्ञानशाल का जनक समझते

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