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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३९६

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संन्यास और कर्मयोग।
आयु विताने का मार्ग। श्रेणी। गति।
१. कामोपभोग को ही पुरुपार्थ मान कर अहंकार से, आसुरी बुद्धि से, दम्भ ले, या लोभ से केवल आत्मसुख के लिये कर्म करना (गी.१६.१६)-आसुर अथवा राक्षसी मार्ग है। अधम नरक
१. इस प्रकार परमेश्वर के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान न होने पर भी, कि प्राणिमात्र में एक ही आत्मा है, वेदों की आज्ञा या शास्त्रों की आज्ञा के अनुसार श्रद्धा और नीति से अपने-अपने काम्य-कर्म करना (गी. २. ४१-४४, और ६-२०) केवल फर्म, प्रवी धर्म, अथवा मीमांसक माग है। मध्यम (नीमांसको के मत में उत्तम)
जनक वर्णित तीन निष्ठाएँ।
स्वर्ग (मीमांसकों के मत में मोक्ष)
१. शास्त्रोक्त निष्काम कर्मों से परमेश्वर का ज्ञान हो जाने पर अन्त में वैराग्य से समस्त कर्म छोड़, केवल ज्ञान में ही तृप्त हो रहना गी. ५.२)- केपल दान, सांख्य, अथवा स्मार्त मार्ग है। उत्तम मोक्ष
गीता की दो निठाएँ।
१. पहले चित्त की शुद्धि के निमित्त, और उससे परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर फिर केवल लोकसंग्रहार्थ, मरण-पर्यंत भगवान् के समान निष्काम-कर्म करते रहना (गी. ५.२)- दान-कर्म-समुच्चय, कर्मयोग या भागवत मार्ग है। सर्वोत्तम मोक्ष


सारांश, यही पक्ष गीता में सर्वोत्तम ठहराया गया है, कि मोक्ष प्राप्ति के लिये यद्यपि कर्म की आवश्यकता नहीं है, तथापि उसके साथ ही साथ दूसरे कारणों के लिये–अर्थात्, एक तो अपरिहार्य समझ कर, और दूसरे जगत् के धारणपोपण के लिये आवश्यक मान कर–निष्काम बुद्धि से सदैव समस्त कर्मों को करते रहना चाहिये; अथवा गीता का अन्तिम मत ऐसा है, कि "कृतादिषु कर्तारः कर्तृषु ब्रह्मवादिनः" (मनु. १.६७) मनु, के इस वचन के अनुसार कर्तृत्व और ब्रह्मज्ञान का योग या मेल ही सब में उत्तम है, और निरा कर्तृत्व या कोरा ब्रह्मज्ञान प्रत्येक एकदेशीय है।