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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६८७

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६४८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३॥ न कर्मणामनारंभानैष्कम्यं पुरुषोऽश्नुते । नच संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥४॥ न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते हवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥५॥ श्रीभगवान् ने कहा-(३) हे निष्पाप अर्जुन ! पहले (अर्थात् दूसरे अध्याय म मैंने यह बतलाया है कि, इस लोक में दो प्रकार की निष्टाएँ हैं-अर्थात् ज्ञान- योग से सांख्या की और कर्मयोग से योगियों की। i [हमने 'पुरा' शब्द का अर्थ " पहले " अर्थात् " दूसरे अध्याय में" किया है। यही अर्थ सरल है, क्योंकि दूसरे अध्याय में पहले सांख्यनिष्ठा के मनु- सार ज्ञान का वर्णन करके फिर कर्मयोगनिष्ठा का प्रारम्भ किया गया है। परन्तु 'पुरा' शब्द का अर्थ " सृष्टि के प्रारम्भ में " भी हो सकता है । क्योंकि महा- भारत में, नारायणीय या भागवतधर्म क निरूपण में यह वर्णन है, कि सांण्य और योग (निवृत्ति और प्रवृत्ति ) दोनों प्रकार की निष्ठाओं को भगवान् ने जगत् के प्रारम्भ में ही उत्पन्न किया है (देखो शां. ३४० और ३४७) । निष्ठा' शब्द के पहले मोक्ष' शब्द अध्याहृत है, निष्ठा' शब्द का अर्थ वह मार्ग है कि जिससे चलने पर अन्त में मोक्ष मिलता है। गीता के अनुसार ऐसी निष्ठाएँ दो ही हैं, और वे दोनों स्वतंत्र हैं, कोई किसी का अङ्ग नहीं है इत्यादि बातों का विस्तृत विवेचन गीतारहस्य के ग्यारहवें प्रकरण (पृ. ३०४-३१५) में किया गया है, इसलिये उसे यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं है। ग्यारहवें प्रकरण के अन्त (पृष्ठ ३५२) में नक्शा देकर इस बात का भी वर्णन कर दिया गया है कि दोनों निष्ठाओं में भेद क्या है । मोन की दो निष्ठाएँ वतला दी गईं; अव तदं. गभूत नैष्कयसिद्धि का स्वरूप स्पष्ट करके वतलाते हैं- (४) (परन्तु) कर्मों का प्रारम्भ न करने से ही पुरुष को नैष्कर्य-प्राप्ति नहीं हो जाती, और कर्मों का संन्यास (त्याग) कर देने से ही सिद्धि नहीं मिल जाती । (५) क्योंकि कोई मनुष्य (कुछ न कुछ) कर्म किये विना क्षण भर भी नहीं रह सकता। प्रकृति के गुण प्रत्येक परतन्त्र मनुष्य को (सदा कुछ न कुछ) कर्म करने में लगाया ही करते हैं। । [चौथे श्लोक के पहले चरण में जो ' नैष्कर्म्य' पद है, अर्थ मान कर संन्यासमार्गवाले टीकाकारों ने इस श्लोक का अर्थ अपने सम्प्रदाय के अनुकूल इस प्रकार बना लिया है-" कर्मों का प्रारंभ न करने से ज्ञान नहीं होता, अर्थात कर्मों से ही ज्ञान होता है, क्योंकि कर्म ज्ञानप्राप्ति का साधन है। परन्तु यह अर्थ न तो सरल है और न ठीक ठीक । नैष्कर्म्य शब्द का उपयोग वेदान्त और मीमांसा दोनों शाखों में कई वार किया गया है और उसका 6 ज्ञान 9