सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६० गीता-हृदय . याया है । इसमें एक ही मतलव हो सकता है और वह यह कि गीताको इम बातपर ज्यादेमे ज्यादा जोर देना है कि वर्णों और आश्रमोके जितने भी धर्म है नवके मव स्वाभाविक है, न कि कृत्रिम, बनावटी या डर भयरी पैदा किये गये। मगर इतनेसे ही मन्तोप न करके ठेठ ४१वे श्लोकमे भो, जहाँ चारोका एक म्यानपर ही नाम लिया है, साफ ही कहा है कि "इन चारोके काम बँटे हुए है और यह बात गुणोके अनुसार वने स्वभावके हो मुताविक हुई है"-"कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभ- वर्गुण" । गुणोमे मत्त्व, रज और तम को कमी-चेगी तथा समिश्रणके अनुपातके ही हिसावमे लाखो, करोडो, या अनन्त प्रकारके मनुष्योके न्वभाव वने है और इन जुदे-जुदे म्वभावोके ही अनुमार उनके कर्म भी निर्धारित किये गये है। स्वाभाविक क्या है ? इन वर्णनमे एक और भी खूबी है । लोग तो ग्रामतीरमे यही समझते है कि ब्राह्मणमात्रके लिये एक ही प्रकारके धर्म है। यही वात क्षत्रियादिके भी सम्बन्धमे समझी जाती है। गोतामे भी इन धर्मोको इसी प्रकार गिनाया है। इसलिये शका हो सकती है कि फिर भी तो यह वर्म मामूहिक ही हो गया। व्यक्तिगत तो रहा नहीं। क्योकि ब्राह्मण-समूहका एक वर्म हुअा ही और इसी तरह क्षत्रियादिके भो नमूहका । यही बात शेख, मैयद, मुगल और पठान को भी हो सकती है और पादरी तथा गृहस्थ क्रिम्नानकी भी। उसके बाद ब्राह्मणादि चारोको मिलाके हिन्दू समूहका भी एक धर्म होई जाता है, गेग, मैयद आदिका मिलाके मुसलमान समु- दायका भी और पादरी तथा गृहस्थका मिलाके ईमाईका भी । इस प्रकार घूम-फिरके हम वहीं पहुंच जाते है जहाँसे चले थे और "है वही पहले जहाँ थे, क्योकि दुनिया गोल है "की वात पा जाती है । -