सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भौतिक द्वन्द्ववाद ११६ . सभी कामोमे वह किसी भी भगवान या दैवी-शक्तिका हाथ नहीं देखता। उसने तो इसके सभी कामोंके बाकायदा चलानेकी ताकत इसी दुनियामे, यही के पदार्थों में देख ली है। हम चाहे सो भी जाये । मगर वह ताकत, जिसे वह निरी भौतिक ताकत समझता है, बराबर जगी रहती और अपना काम करती जाती है। उसे तो जरा भी विराम नही है, जरा साँस लेनेकी भी फुर्सत नही है। इसी ताकतका नाम उसने द्वन्द्ववाद रखा है। इसे ताकत कहिये, या भौतिक प्रक्रिया (Material Process) कहिये । यही सब कुछ करती है। मार्क्स दुनियाके निर्माण सम्बन्धी दार्शनिक विचारोमें इससे आगे नहीं जाता, नहीं जा सकता है। उसके मतमें इससे आगे जानेकी जरूरत हई नही। हमारा काम तो इतनेसे ही बखूबी चल जाता है, चल जायगा। बल्कि वह तो यहाँतक कहता है कि आगे जानेमे खतरा है और सारा गुड गोबर हो जायगा-हमारे काम ही चौपट हो जायँगे । यही है सक्षेपमे मार्क्सका द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद या भौतिक Seara (Dialectical Materialism) इस सिद्धान्तके अनुसार संसारके पदार्थोंमे बराबर सघर्ष (द्वन्द्व) चलता रहता है, जिसे हलचल, सग्राम, युद्ध या जीवन सग्राम (Struggle for Existence) भी कहते है। इसमे कमजोर पक्ष हारता और जबर्दस्त जीतता है; दुर्बल खत्म हो जाते, मिट जाते और प्रबल जम जाते है। इसे ही डार्विनका विकासवाद भी कहते है। इस दुनियामे जो लोग साधन सम्पन्न, कुशल और चौकन्ने है वही रह पाते और आगे बढते है। विपरीत इसके जो ढीले, आगा-पीछा करनेवाले, असहाय, भोदू है वे मिट जाते है । इस निरन्तर चलनेवाले (सतत) सग्रामके फलस्वरूप ही ससारकी प्रगति होती है। यह तो बात मानी हुई है। चाहे ढीले ढाले और आगा-पीछावाले खत्म भले ही हो जायें और उनके विरोधी आगे बढ़ जाय । मगर इसीके साथ समूचा ससार आगे बढ जाता है और इसीमें , N