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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१३७

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दृष्ट और अदृष्ट १२६ और स्वीकार करते है कि वह उसकी खास देन है, ठीक यही बात यहाँ भी है। श्रद्धापूर्वक कर्म करना ही असल चीज है। श्रद्धासे ही कर्मोका म्प निर्णीत हो जाता है। इसीलिये कर्म सोलहो पाना व्यक्तिगत चीज है, यह वात भी गीताधर्म है । उस योगकी ही तरह यह चीज भी और कही पाई नहीं जाती है। इसलिये गीताधर्म और मार्क्सवादमे कोई भी विरोध नहीं है यह जो हमने पहले कहा वह ज्योका-त्यो वना रह जाता है और इस प्रकार हमारा अपना काम सिद्ध हो जाता है-पूरा हो जाता है। जो चीज या जो विषय--जो सिद्धान्त-अन्यान्य ग्रन्थो और मत- वादोमे पाया जाय उसे भला गीता-धर्म कैसे कहेगे? और यही वात कर्म- वादके सम्बन्धमे भी है। यही कारण है कि हमारे हरेक कामोके पाँच कारणोको गिनाके उनमे जो दैव या भाग्यको भी गिनाया है, ठीक उसीके पूर्वके श्लोक “पचैतानि महावाहो", "साख्ये कृताते प्रोक्तानि" (१३) में साफ ही कहा है कि साख्यमत या सांख्यसिद्धान्तमे ऐसा माना गया है। फिर भी इस सम्बन्धमे कुछ वाते जाननेकी है। इससे गीताधर्मके यथार्थ महत्त्वको समझनेमे आसानी होगी। प्राय हजारो साल पहले एक अपूर्व प्रतिभाशाली नैयायिक विद्वान उदयनाचार्य हो गये है, जिनने ईश्वरवाद और धर्म-कर्मकी सिद्धिपर कई अपूर्व ग्रन्थ लिखे है। इन्हीमे एकका नाम न्यायकुसुमाञ्जलि है। उसमे एक स्थानपर इसी दैव, प्रारब्ध, अदृष्ट या अपूर्व-दैवको ही अपूर्व तथा अदृष्ट भी कहते है-के सम्बन्धमे लिखते हुए लिखा है कि गासारिक पदार्थोकी उत्पत्तिके लिये दो प्रकारके कारण माने जाते है, दृष्ट और अदृष्ट । कपडा तैयार करनेमे जिस प्रकार सूत, जुलाहा, करघा वगैरह प्रत्यक्ष या दृष्ट कारण है, उसी प्रकार सभी पदार्थोके ऐसे ही कारणोको दृष्ट कारण कहते है। मगर इनके अलावे जो दूसरा कारण है और प्रत्यक्ष दीखनेवाला नहीं है उसे अदृष्ट कहते है । उदयनाचार्यने Ĉ