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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१४९

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योग और मार्क्सवाद १४१ रागद्वेष होते है वही सब कुछ करते है-वही जहर है, घातक है"- "इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशभागच्छेत्ती ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥” इस वातका प्रतिपादन तो पहले बहुत विस्तारके साथ किया गया है। यहाँ ऐसा कहनेका अभिप्राय यह है कि भले बुरेका सवाल उठाके जो किसी धर्म या कामको बुरा और दूसरेको अच्छा कहते है और इसीलिये आपसमे लोगोके सर भी फूटते हैं, वह तो नादांनी है। न कोई भला है न बुरा। भला-बुरा तो अपना मन ही है। यही तो चीजो या कामोमे रागद्वेष पैदा करके जहन्नुम पहुँचाता है। इसलिये हमे इस भूलमे हर्गिज नही पडना होगा। गीताका यह कितना सुन्दर मत्र है और यदि हम इसपर चले तो हमारे हककी लडाई कितनी जल्दी सफल हो जाय। ऐसा होनेपर तो मार्क्सवादके सामनेकी भारी चट्टान ही खत्म हो जाय और वर्गसंघर्ष निर्बाध चलने लगे। योग और मार्क्सवाद जिन दो बातोको कहके यह प्रकरण पूरा करनेकी इच्छा हमने जाहिर की थी उनमे स्वधर्मवाली यह एक बात तो हो चुकी है। अब दूसरीको देखना है। गीताके छठे अध्यायके ४५वे, और सातवे अध्यायके तीसरे एव १९वे श्लोकोके अनुसार गीतोक्त योग प्राय: अप्राप्य है । लाखो करोडोमे शायद ही एकाध आदमी इसमे पूरे उतरते है। उक्त ४५वे श्लोकमें तो कहा है कि "योगकी प्राप्तिके लिये यत्न करनेवाला मनुष्य जव इसमे सारी शक्ति लगाके पडे तो उसके भीतरकी मैल धुलते-धुलते वहुत जन्म लग जाते है। तब कही वह पूर्ण योगी बनके परमगति प्राप्त करता है" -"प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी सशुद्धकिल्विष । अनेकजन्म- ससिद्धस्ततो याति परा गतिम् ॥" इसी प्रकार सातवे अध्यायके १९वे श्लोकमे भी कहा है कि "बहुत