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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१५८

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१५२ गीता-हृदय - . कृष्णमें कथमपि लागू हो सकती है नही। उसीके आगे जब अवतारकी बातके प्रसगमें कहा है कि मैं समय-समयपर पैदा हो जाता हूँ, तो यह भी शरीरधारीके लिये सभव नहीं। कोई नही मानता कि कृष्ण बार-बार जन्म लेते हैं । यो तो हर मनुष्य भी बार-बार जन्मता ही है। मगर उसे अवतार नही कहते। चातुर्वर्ण्यकी रचना भी कृष्णके शरीरसे नहीं होती। हालांकि उनने कहा है कि मै ही चातुर्वर्ण्य बनाता हूँ। सातवें अध्यायमे अपनेको अधियज्ञ कहा है। यह भी ईश्वरके ही लिये सभव है, न कि शरीरवालेके लिये । अघियज्ञका आशय आगे मालूम होगा। इसी प्रकार प्रत्येक प्रसगके देखनेसे पता चलता है कि प्रात्मज्ञानके बलसे कृष्ण अपनी आत्माको परमात्मस्वरूप ही अनुभव करते थे और वैसा ही बोलते भी थे। वह उपदेशके समय यात्माका ब्रह्मके साथ तादात्म्य मानते हुए ही बाते करते थे। मालूम होता है, जरा भी नीचे नही उतरते थे। उसी उँचाईपर वरावर कायम रहते थे। इसीलिये तो इन उपदेशोमे अपूर्व आकर्षणशक्ति और मोहनी है। बृहदारण्यक उपनिषदमें वामदेवके इसी प्रकारके अनुभवका उल्लेख आया है। वहाँ लिखा है कि "तद्ध- तत्पश्यन्नृषिर्वामदेव प्रतिपेदेऽह मनुरभव सूर्यश्चेति । तदिदमप्येतर्हि य एव वेदाह ब्रह्मास्मीति स इद सर्व भवति" (११४११०)। इसका अर्थ है यह कि “वामदेव ऋषिको जब अपनी ब्रह्मरूपताका साक्षात्कार हो गया तो उनने कहा कि ऐ, हमी तो मनु, सूर्य आदि बने । आज भी जिसे ठीक वैसा ही अनुभव अपनी ब्रह्मरूपताका हो जाय वह भी यही मानता है कि वही यह सारा मसार बन गया है ।" ससार तो ईश्वरका ही रूप माना जाता है । गीतामें तो इसकी घोषणा है। इसलिये जो अपनेको ब्रह्मरूप ही मानने लगेगा वह तो यह समझेगा ही कि सारी दुनिया उसीका रूप है । कृष्णका अनुभव ऐसा ही था । इसीलिये सातवें अध्यायके ६-१२ श्लोकोमे, नवेंके १६-१६ श्लोकोमे और दसवेंके प्राय सभी श्लोकोमें