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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१७५

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१७० गीता-हृदय . 1 न हो या भलाई न हो। इसलिये बुराईवाला होनेपर भी स्वधर्म ही ठीक है। उसीको करना चाहिये ।" गीतामें जो धर्म, अधर्म शब्द कही-कही आ गये है वह अर्जुनकी इसी भ्रान्त धारणाको ही लेके, और उसे ही कृष्णने दूर किया है। इससे एक और भी गडबड हो जाती है। ऐसी धारणाके करते धर्म और अधर्म अजीवसी चीज बन जाते है। क्षत्रियके लिये युद्ध जैसा महान् धर्म भी अधर्मकी कोटिमें -उसी श्रेणीमे-या जाता है। यह कितनी गलत बात है । ऐसा समझना कि जो निर्दोष हो, हिंसारहित हो वही धर्म और शेष अधर्म है, कितनी नादानी है । सांस लेने एव पलक मारनेमे भी तो लक्ष-लक्ष कीटाणुलोका सहार होता रहता ही है। पुराने लोगोने भी कहा ही है कि वायुमडलमें ऐसे अनत जीव भरे पडे है जिनका सहार पलक मारनेसे ही हो जाता है-“पक्ष्मणोऽपि विपातेन येषा स्यात्पर्व- सक्षय ।" जब यही बात है तो फिर साँसका क्या कहना बरावर चलती और गर्मागर्म रहती है। फलत कत्लेआम ही होता रहता है उसके चलते भी | तो क्या किया जाय ? क्या पलक न मारें? साँस न ले ? क्योकि अधर्म जो हो जायगा | और जव इस प्रकार जीवन ही अधर्म हो गया तो आगे क्या कहा जाय ? धर्मशास्त्रियोने जिस जीवनरक्षाके लिये सब कुछ कर डालने और खा-पी लेनेतककी छूट दे दी है वही अधर्म ? और पूजा-पाठ ? माला जपो, जवान हिलायो, चन्दन रगडो, फूल तोडो, आरती करो, दीप जलाओ, भोग लगाओ और पद-पदपर अनन्त निर्दोष जीवोका सहार करो। फिर भी यह कहना कि यह पूजा-पाठ धर्म है, महज नादानी है, यदि धर्मकी वहीं परिभाषा मानी जाय जो अर्जुनके दिमागमे थी। तब तो कही भी किसी प्रकार गुजर नही और धर्म महाराज यहाँसे सदाके लिये विदाई ही लेके चले जाये। ? वह तो . 7 .