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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१८७

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१८२ गीता-हृदय . भोग लगाऊँ और यज्ञशिष्ट या प्रसाद स्वय ग्रहण करूँ। बेशक, आजकलके नकली भक्तोकी तरह ठाकुरजीकी मूर्ति तो वह साथमें बाँधे फिरते न थे। वे थे तो पहुँचे हुए मस्तराम । उनके भगवान तो सभी जगह मौजूद थे। खैर, उनने रोटियाँ रखके घीकी ओर पाँव बढाया और उसे लेके जो उलट पाँव लौटे तो देखा कि एक कुत्ता रोटियाँ लिये भागा जा रहा है । फिर क्या था ? कुत्तेके पीछे दौड पडे ! कुत्ता भागा जा रहा है वेतहाश और नरसी उसके पीछे-पीछे हाथमे घी लिये प्रार्जू-मिन्नत करते हुए हांपते-हाँपते दौडे जा रहे है कि, महाराज, रूखी रोटियां गलेमें अटकेंगो । जरा घी तो लगा देने दीजिये । मुझे क्या मालूम कि आप इतने भूखे है कि घी लगाने भर की इन्तजार भी बर्दाश्त नही कर सकते । यदि मुझे ऐसा पता होता तो और सबेरे ही रोटियां बना लेता । अपराध क्षमा हो । अब आगे ऐसी गलती न होगी । कृपया रुक जाइये, आदि- श्रादि । बहुत दौड-धूपके वाद तब कही कुत्ता रुका और नरसीने भगवानके चरण पकडे । नरसीको तो असलमें कुत्ता नजर आता न था। कुत्तेकी शकल तो बाहरी नकाब थी, ऊपरी पर्दा था। वह तो नकाबको फाडके उसके भीतर अपने भगवानको ही देखते थे। उनकी आँखें तो दूसरी चीज देख पाती न थी। उनके लिये सर्वत्र सम ही सम था, सर्वत्र उनकी प्रात्मा ही आत्मा थी, ब्रह्म ही ब्रह्म था। नटलोलाका पर्दा वह भूल चुके थे- देखते ही न थे। यदि किसी वैज्ञानिकके सामने पानी लाइये तो वह उसमें और ही कुछ देखता है । उसकी दूरदर्शी एव भीतर घुसनेवाली--पर्दा फाड डालनेवाली~आँखें उसमें सिवाय प्रोक्सिजन और हाइड्रोजन (Oxygen and Hydrogen) नामक दो हवायोकी खास मात्राओके और कुछ नही देखती है, हालांकि सर्वसाधारणकी नजरोमें वह सिर्फ यानी है, दूसरा कुछ नही। वैज्ञानिककी भी स्थूल दृष्टि पानी देखती .