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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२००

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यज्ञचन १६७ इतना तो कहता ही है कि “यज्ञ-यागादिके समय अग्निमे जो कुछ ठीक- ठीक हवन किया जाता है वह सूर्य तक पहुंचता है, सूर्यसे वृष्टि होती है, वृष्टिसे अन्न होता है और अन्नसे प्राणियोकी उत्पत्ति तथा वृद्धि होती है।" महाभारतके शान्तिपर्वके २६१वे अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक भी ऐसा ही है। इससे इतना तो साफ होई जाता है कि उस समय लोगोका खयाल यज्ञके सम्बन्धमें केवल स्वर्गादि तक ही सीमित न रहके समाजकी व्यवस्था और उसके भरण-पोषणतक भी गया था। लोग यह मानने लगे थे कि समाजके कल्याणके लिये प्राणियोके सीधे भरण-पोषण आदिके लिये-भी यज्ञ एक जरूरी चीज है । धर्मके रूपमे यज्ञके करनेसे पुण्यके जरिये लोगोको अन्न-वस्त्रादि प्राप्त होगे इस खयालके सिवाय यह विचार भी जड पकड़ चुका था कि यज्ञसे सीधे ही वृष्टिमे सहायता होती है और उससे अन्नादि उत्पन्न होते है। शक, मीमासकोने कारीरी नामक यागके बारेमे यह भी कहा है कि उसके करनेसे अवर्षण मिट जाता है और वृष्टि होती है-“ कार्या वृष्टिकामो यजेत।" मगर आमतौरसे सभी यज्ञयागोके बारेमें उनका ऐसा मत है नही। इसीलिये मनुस्मृति और शान्तिपर्वके उक्त वचन उस समयके लोगोके विचारोकी प्रगतिके सूचक है। उनसे पता चलता है कि किस प्रकार सामान्य रूपसे पुण्य-प्राप्ति, स्वर्ग-प्राप्ति आदिसे आगे बढके क्रमश. कारीरी यज्ञ के द्वारा सामान्यतः सभी यज्ञोका उपयोग समाजहितके काममे सीधे होने लगा। उपनिषदोके समयमे ऋषियो ने और पीछे दार्शनिकोने भी जो यह स्वीकार किया कि अग्निसे जल और जलसे पृथिवीके द्वारा अन्नादि उत्पन्न हुए और इस प्रकार प्राणि-सृष्टिका विकास हुआ उसका भी सम्बन्ध इस यज्ञवाली प्रक्रियासे है या नही और अगर है तो कितना यह कहना असभव है। यज्ञ और अग्निका सम्बन्ध पुराने लोग अविच्छिन्न मानते थे। इसीलिये यह खयाल स्वाभाविक है कि शायद