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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२८०

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२८४ गीता-हृदय ? कूल चलना गीताके वारेमें कह चुके, तो एक प्रकारसे उसका अर्थ तो मालूम भी हो गया। फिर भी गीताके वचनोको उद्धृत करके ही यह बात कहने में मजा भी आयगा और लोग मान भी सकेगे। अद्वैतवादका अभिप्राय क्या है, यह भी तो कुछ न कुछ कहना ही होगा। क्योकि सभी लोग प्राम तौरसे क्या जानने गये कि यह क्या बला है ? हमने पहले यह कहा है कि गौतम और कणाद तथा अर्वाचीन दार्श- निक डाल्टनके परमाणुवाद और तन्मूलक आरभवादकी जगह साख्य, योग एव वेदान्त तथा अर्वाचीन दार्शनिक डारविनकी तरह गीता भी गुणवाद तथा तन्मूलक परिणामवाद या विकासवादको ही मानती है। इसपर प्रश्न हो सकता है कि क्या वेदान्त और साख्यका परिणामवाद एक ही है ? या दोनोमे कुछ अन्तर है ? कहनेका आशय यह है कि जव दोनोके मौलिक सिद्धान्त दो है तो सृष्टिके सम्बन्धमें भी दोनोमें कुछ तो अन्तर होगा ही। और जब वेदान्तका मन्तव्य अद्वैतवाद है तब वह परिणामवादको पूरा-पूरा कसे मान सकता है ? क्योकि ऐसा होनेपर तो गुणोको मानके अनेक पदार्थ स्वीकार करने ही होगे। फिर एक ही चेतन पदार्थ-आत्मा या ब्रह्म-को स्वीकार करने का वेदान्त का सिद्धान्त कैसे रह सकेगा? यदि सभी गुणोको और उनसे होनेवाले पदार्थोको प्रकृतिसे जुदा न भी मानें--क्योकि सभी तो प्रकृतिके ही प्रसार या परिणाम ही माने जाते है और इस प्रकार जड पदार्थोकी एकता या अद्वैत (Monism) मान भी लें, जिसे जडाद्वैत (Material monism) कहते है, साथ ही प्रात्मा एव ब्रह्मकी एकताके द्वारा चेतनाद्वैत (Spiritual monism) भी मान ले, तो भी जड और चेतन ये दो तो रही जायेंगे। फिर तो द्वित्व या द्वैत-दो-होनेसे द्वैतवाद ही होगा, न कि अद्वैतवाद । वह तो तभी होगा जव द्वित्व-दो चीज-न हो। अद्वैतका तो अर्थ ही है द्वत या दोका न होना।