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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२९४

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२६८ गीता-हृदय गुणसख्यान शब्दका अर्थ है गुणोका वर्णन जहाँ पाया जाय । साँख्य शब्दका भी तो अर्थ है गिनना, वर्णन करना । साख्यने तो गुणोका ही व्योरा ज्यादातर बताया है। इसीलिये उसे गुणसख्यानशास्त्र भी कह दिया । शेष साख्य और योग शब्द ज्ञान आदिके ही अर्थमे गीतामें आये है। गोतामें मायावाद 7 यह ठीक है कि मायावादकी साफ चर्चा गीतामे नही आती। मगर मायाका और उसके भ्रममें डालने आदि कामोका बार-बार जिक्र उसमें पाया ही है। "सभवाम्यात्ममायया" (४१६), "देवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया" (७१४), "माययापहृतज्ञाना" (७/१५), "योग- माया समावृत" (७/२५), "यत्रारूढानि मायया" (१८६१) में जिस प्रकार मायाका उल्लेख है, जैसा चौदहवेमें प्रकृतिका वर्णन आया है, "मयाध्यक्षेण प्रकृति" (१०) मे जिस तरह प्रकृतिका नाम लिया है, तेरहवे अध्यायके "भूतप्रकृतिमोक्ष च" (१३॥३४) आदि श्लोकोमें बार-बार प्रकृतिका उल्लेख जिस प्रसगमें आया है तथा “महाभूतान्य- ह्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च" (१३।५) मे जो अव्यक्त शब्द है ये सभी मायाके ही अर्थमे आके वेदान्तके मायावादके ही समर्थक है। तेरहवेके शुरूमे जो क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञका बार-बार जिक्र आया है और "एतत्क्षेत्र समासेन सविकारमुदाहृतम्' (१३१६) में क्षेत्रका उसके घासपात -विकार-के साथ जो वर्णन आलकारिक ढगसे किया गया है वह भी इसी चीजका समर्थक है । क्षेत्र तो खेतको कहते है और जैसे खेतिहर खेतके घासपातको साफ करके ही सफल खेती कर सकता है, ठीक उसी प्रकार यह क्षेत्रज्ञ-प्रात्मा--रूपी खेतिहर भी रागद्वेष आदि घासपातो- को निर्मूल करके ही अपने कल्याणका उत्पादन इस खेत-शरीर-में कर सकता है, यही बात वहाँ कही गई है। मगर वहाँ समष्टि शरीर या