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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३५६

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उत्तरायण और दक्षिणायन ३६१ ऋषि थे या नही। सभव है,, वे रहे भी हो। मगर यहाँ वह बात नही है, हमारा यही खयाल है।, असलमे एक बात सोचनेकी यह है कि प्रत्येक पदार्थके परिपक्व होनेमे सबसे बडा हाथ काल या समयका ही होता है यह तो मानना ही होगा। कम-बेग समयके चलते ही चीजे पक्व तथा अपक्व होती है। यह ठीक है कि युक्तिसे हम समयमें कमी बेशी कर दे सकते है । मगर समयकी अपेक्षा तो फिर भी रहती ही है। काल और दिशाको जो प्राचीन दार्श- निकोने माना वह इसी जरूरतको पूरा करने के लिये । काल और दिशामे कोई बुनियादी फर्क नही है । दोनो एक जैसे ही है और एक दूसरेके सहा- यक है। इसीलिये वस्तुगत्या एक ही है। हम देखते है कि पदार्थोमे परमाणुमोका आना या वहाँसे जाना भी समयकी अपेक्षा करता है । कैसा परमाणु कब निकले या आये यह बात भी कालकी अपेक्षा रखती है। यहाँ उत्तरायण और दक्षिणायन मार्गोंमे क्रमश उपासना या अपरि- पक्व ज्ञान तथा कर्मके परिपाककी ही जरूरत है भी, ताकि आगे वे अपना परिणाम या फल दिखला सके। इसीलिये जो भी परिणाम होनेवाला हो उससे पहले एक लम्बा या विस्तृत काल होगा ही, फिर वह लम्बाई चाहे बहुत ज्यादा हो या अपेक्षाकृत कम हो। ऋषियोने उसी कालकी कल्पना करके उसके विभाग वैसे ही किये जैसे हमने यहाँ कर रखे है--जैसे यहाँ पाये जाते है। इस विभागके बाद जब ज्यादा लम्बा काल पा गया तो उसे हमारी अपनी तराजूसे नाप-जोख और बँटवारा न करके दिव्य या देवताओकी ही तराजूसे बँटवारा किया। आखिर हमारी नन्ही तराजूसे कबतक बाँटते रहते ? यही रहस्य है दैवी या दिव्य वर्ष माननेका जिसमे हमारे छे महीनेका दिन और उतनेकी ही रात मानी गई। यह तो मामूली दिव्यतराजू हुई। मगर इससे भी लम्बी है आखिरी तराजू, जिसे हिरण्य- गर्भ या ब्रह्माकी तराजू कहते है । इसमे हमारे हजार युगोके दिनरात