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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३५९

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३६४ गीता-हृदय . हई और पूर्व आदि दिशाको कालसे जुदा मानते भी नहीं यह कही चुके है। उत्तरायण प्रकाशमय है और दक्षिणायन अंधेरा। इसीलिये पथ- दर्शकोके नाम भी दोनोमे ऐसे ही है। मालूम होता है, जैसे चावलके परमाणु निकलनेके रास्ते और साधन है जिन्हें हम देख न सकनेपर भी मानते है, नहीं तो व्यवस्था न होके गडवडी हो जाती, वैसे ही शरीर- दाहके बाद उत्तरायण मार्गमे चिताग्निकी ज्योति और दक्षिणायनमें उसका धुआँ मृतात्माकी सूक्ष्म देहको ले चलनेका श्रीगणेश करते है। कमसे कम प्राचीनोने यही कल्पना की थी कि सूक्ष्म शरीरको यही दोनो यहाँसे उठाते और ले चलते है। आगे दिन और रातको सीप देते हैं। वह शुक्ल और कृष्ण पक्षको । यही क्रम चलता है । ज्योति, धूम आदिको देवता तो इसीलिये कहा कि इनमे वह अलौकिक-दिव्य-ताकत है जो हम औरोमें नहीं पाते। सूक्ष्म शरीरको ले जाना और पहुँचाना असाधारण या अलौकिक काम तो हई। वैदिक यज्ञयागादि कर्मोका ज्ञान या विवेकसे ताल्लुक है नहीं यह तो गीताने “यामिमा" (२।४२-४६) आदिमें कहा ही है और उन्हीका फल है यह दक्षिणायन । इसीलिये यहाँ प्रकाश नहीं है । जैमेका तैसा फल है। उधर उपासना कहते है अपूर्ण ज्ञानको अवस्थाको हो । इमलिये उसमे प्रकाश तो हई। यही वात उत्तरायणम भी है। जानके अपूर्ण होनेके कारण ही मृतात्माकी, ब्रह्मलोकमें पहुंचनेके उपरान्त समय पाके ज्ञान पूर्ण होनेपर, ब्रह्माके माथ ही मुक्ति मानी गई है। इसीको क्रम मुक्ति भी कहते है। जैसे जनमाधारणके लिये इन दोनो- की अपेक्षा जीने-मरनेका एक तीमरा ही रास्ता कहा गया है, उमी तरह अद्वैततत्त्वके ज्ञानवालेका चौथा है। वह तो कही जाता है न प्राता है। उसके प्राण यहीं विलीन हो जाते और वह यहीं मुक्त हो जाता है