सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४०६ गीता-हृदय 1 भाई, पुत्र, पोते, मित्र, ससुर और स्नेही (लोग ही) दोनो ही सेनामोमें । खडे है ।२६।२७॥ तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥२७॥ कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमनवीत् । उन अपने ही सगे-सम्बन्धियोको खडे देख अर्जुनको परले दर्जेकी दयाने घेर लिया (और) विषादयुक्त होके वह ऐसा बोला ।२७,२८॥ अर्जुन उवाच दृष्ट्वेम स्वजन कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥२८॥ सीदन्ति मम गात्राणि मुख च परिशुष्यति । वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥२६॥ अर्जुन वोला-हे कृष्ण, इन अपने ही लोगोको युद्धकी इच्छासे यहाँ जमा देखके मेरे अग शिथिल हो रहे हैं, मुंह बहुत सूख रहा है, मेरे शरीरमे कॅपकपी हो रही है और रोयें खडे हो रहे हैं ।२८।२६। गांडीवं स्रसते हस्तात्त्वक् चैव परिदह्यते । न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥३०॥ गाडीव घनुप हाथसे गिरा जा रहा है, त्वचा (समस्त शरीर)में आगसी लगी है, खडा रह सकता हूँ नही और मेरा मन चक्करसा काट रहा है।३०॥ निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव । न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥३॥ हे केशव, लक्षण उलटे देख रहा हूँ। अपने ही लोगोको युद्ध में मारके खैरियत नहीं देखता ।३१॥ न काक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च । कि नो राज्येन गोविन्द कि भोग वितेन वा ॥३२॥