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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४०६

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दूसरा अध्याय ४१३ संजय उवाच तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् । विषीदन्तमिद वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥१॥ सजयने कहा-इस तरह कृपासे ओतप्रोत, आँसूभरी बेचैन आँखोवाले और विषादयुक्त उस अर्जुनसे मधुसूदनने आगेवाली बात कही ।१। श्रीभगवानुवाच कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् । अनार्यजुष्टमस्वय॑मकीतिकरमर्जुन ॥२॥ श्रीभगवान बोले-अर्जुन, ऐसे सकटके समयमे-लडाईके मैदानमे- तुममे यह गन्दगी कहाँसे आ गई ? गन्दगी भी ऐसी कि जिसे भले लोग कभी अपनाते नही, जो उन्नतिकी ओर तो ले जानेवाली नहीं। (हाँ,) बदनामी फैलानेवाली (जरूर) है ।२। क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यवत्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥३॥ पार्थ, नामर्दी मत दिखाओ। यह तुम्हे शोभा नही देती। प्रो दुश्मनोको तपानेवाले, हृदयकी (इस) नाचीज कमजोरीको छोडके खड़ा हो जाओ ।। अब अर्जुनने देखा कि कृष्णको मेरे दिलकी बातोका ठीक-ठीक पता नही है । वह समझते है कि मैं केवल माया-ममताकी कमजोरीसे ऐसा कर रहा हूँ। इसलिये जरूरत इस बातकी है कि सारी बाते खोलके उनके सामने रख दी जायें, ताकि परिस्थितिका पूरा पता उन्हे लग जाय । इससे यह भी होगा कि यदि सभव होगा और उचित समझेगे तो कोई रास्ता भी सुझायेगे । नही तो युद्ध में तो अब पड़ना हई नही । इसीलिये-