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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४३३

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गीता-हृदय नई धोतीको पहले ऊपरसे पहन लेते और पीछे पुरानीको हटाते है, शायद उसी तरह जीव भी नये शरीरोको धारण करके ही पीछे पुराने शरीरोको छोडता हो। और अगर इतनी दूर जानेकी या तो जरूरत नहीं है, या जानेमे अडचन है, क्योकि यह बात सरासर असभव है, तो फौरन ही शरीर ग्रहण करनेकी वाततक जाने में भी वही अडचन है। इसीलिये वहाँतक जानेकी जरूरत नहीं है। हमने जो यह कहा है कि नये शरीरोको धारण करनेके बाद ही पुरानोंके छोडनेकी भी कल्पना की जा सकती है, वह केवल कल्पना ही नहीं है और न गीताके इस श्लोकसे ही उसकी सभावना मानी जाती है । वृहदारण्यक उपनिषदके चौथे अध्यायके चौथे ब्राह्मणके तीसरे मत्रमें जोक या कोडेका दृष्टान्त देकर कहा गया है कि जिस प्रकार एक तृणपर रेंगनेवाला कीज जब उसके आखिरी सिरेपर पहुँचता है तो जबतक दूसरे तृणका सहारा उसे न मिल जाये पहले तृणसे अपने शरीरको कभी नहीं समेटता है, हटाता है। ठीक उसी तरह इस शरीरके त्यागके बारेमे भी आत्माकी हालत हैं । मगर यह बात कोई अक्षरश लागू न कर ले, इसीलिये आगे फौरन कह दिया है कि इस शरीरको छोडनेके बाद अविद्या-सूक्ष्म और कारण- गरीर-का आश्रय लेके आत्मा दूसरे शरीरमे जाती है-“तद्यथा तृण- जलायुका तृणस्यान्त गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानमुपसहरत्येवमेवायमा- स्मेद शरीर निहत्याऽविद्या गमयित्वाऽन्यमाक्रममात्रम्यात्मानमुपसहरति ।" इसी कथनसे समाधान भी हो जाता है। इस स्थूल शरीरके छोडने- पर भी अविद्या नामक अज्ञान तो रहता ही है। वही तो जन्म-मरणका कारण है । उसी अविद्यासे बना सूक्ष्म शरीर भी तो रहता ही है । उसीके आधारसे आत्मा इस स्थूल शरीरसे बाहर जाती है और समय पाके दूसरे स्थूल शरीरमे प्रवेश करती है। गीताके पन्द्रहवें अध्यायके “ममैवाशो जीवलोके" (१५७-८) आदि दो श्लोकोमें साफ ही यह बात कही भी