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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४५२

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दूसरा अध्याय ४५६ है। कुएँ, तालाब नदी वगैरह सबोका काम एक अकेला समुद्र जैसा लम्बा चौडा जलाशय ही दे सकता है। फिर इन चीजोकी अलग जरूरत नहीं रह जाती। उसी प्रकार जिसने कर्मयोगका रहस्य जान लिया उसे सभी वैदिक कर्मोके फलो की-आनन्द की प्राप्ति होई जाती है। उसके भीतर अमृत-समुद्रकी जैसी गभीरता होती है, मस्ती रहती है। फिर और चीजोकी जरूरत ही क्यो हो ? जरूरतकी चीजोकी प्राप्ति और रक्षा--योग-क्षेम- भी होता ही रहता है। यह तो आगे “योगक्षेम वहाम्यहम्” (६।२२) मे कहा ही है। यही पाँच बाते, या यो कहिये कि मीमासकोकी पाँच मुख्य दलीलोके उत्तर क्रमश ४० से ४६ तकके सात श्लोकोमे दिये जाके कर्मयोगकी पूरी भुमिका तैयार कर दी गई है। इनमे पहले दो (४०,४१) श्लोकोमे क्रमश पहली दो बाते आती है। फिर बादके तीन (४२-४४) श्लोकोमे तीसरी आती है । अनन्तर ४५वे चौथी और ४६वेमे पाँचवी आ जाती है। . नेहाभिकमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥४०॥ इस (योग) मे (किसी भी) कदम -काम -का नाश तो होता नही-- कोई भी कदम बेकार नही जाता, इसमे पाप (का सवाल) हई नही और इस (महान्) धर्मका थोडा भी (अनुष्ठान) (इसके करनेवालेको) महान भयसे बचा लेता है। अर्थात् इसमे कोई खतरा भी नही है कि कही अधूरा रह जानेमे उलटा ही परिणाम हो जाय । इसका परिणाम सदा ही सुन्दर होता है ।४०॥ यहाँ अभिक्रमका अर्थ हमने कदम किया है और यही अर्थ उस शब्द का दरअसल है भी 1 कोई भी काम शुरू करनेके मानीमे कदम उठाना या बढाना बोलते है । अग्रेजीमे इसीको स्टेप (step) कहते हैं । कहने- का ग्राशय यहाँ यही है कि इस कर्मयोगके सिलसिलेमे उठाया गया कोई