सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४८४ गीता-हृदय ध्यायतो विषयान्पुंसः सगस्तेषूप जायते । संगात्सजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥६२॥ क्रोधाद्भवति समोह संमोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥६३॥ विषयो--इन्द्रियोके विषयो या भौतिक पदार्थों का खयाल करते ही मनुष्यके (दिलमें उनके प्रति) राग या आसक्ति पैदा हो जाती है। रागसे (उनकी प्राप्तिकी) इच्छा होती है। इच्छासे क्रोध होता है। क्रोधसे जबर्दस्त अन्धकार जैसा मोह पैदा हो जाता है। उस समोहका फल होता है हर तरहकी स्मृति-स्मरण या याद--का खात्मा । स्मृतिके खत्म हो जानेसे विवेक शक्ति जाती रहती है। विवेकशक्तिके चौपट हो जानेपर वह खुद चौपट हो जाता है ।६२,६३। यहाँ जितनी बातें एके बाद दीगरे कही गई है उनका क्रम क्या है और प्रक्रिया कैसी है, इसे अच्छी तरह समझ लेना आवश्यक है । यह ठीक है कि जबतक किसी चीजका खयाल न हो उससे मन चिपकता नही, उसमें सटता नही । देखते है कि फोटोग्राफके प्लेट या पटरीपर उस हर पदार्थका बहुत बारीक असर (impression) पड जाता है जो उसके सामनेसे गुजरता है । इसीको सस्कार कहते है । यदि किसी सुगधित वस्तुको कही रख दें तो उसके हट जानेपर भी उसका कुछ न कुछ असर रही जाता है। इसी तरह दिमागके सामने जो चीज आती है उसका भी असर उसपर पडता ही है। दिमाग तो भीतर है । इसलिये उसके सामने बाहरी चीजें इन्द्रियोकी खिडकियोंसे ही होकर पहुंचती है । सो भी वे खुद नही, किन्तु अन्त करण या मन हूबहू उन्हीके आकारका बनके भीतर लौटता है । इसी तरह वे दिमागके सामने आती है । कभी- कभी ऐसा भी होता है कि इन्द्रियोकी खिड़कियों वन्द रहनेपर भी चीजोंके आकारको मन दिमागके सामने खडा कर देता है। यह इसीलिये होता