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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४८५

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दूसरा अध्याय ४९३ स्वरूप भी मानते है । वह आनन्दका महान् स्रोत है। इसीलिये आत्माके प्रतिविम्वका अर्थ है उसके आनन्दसागरका प्रतिबिम्ब । जो लोग उसका अनुभव करते हैं वह आनन्दमे मस्त रहते है-उमीमे गोते लगाते रहते है। वेदान्ती यह भी मानते है कि ग्रानन्द या सुख तो केवल आत्मामे ही है। केवल वही आनन्द रूप है । भौतिक पदार्थोंमे तो सुखका लेश भी नही है, “यो वै भूमा तत्सुख नाल्पे सुखमस्ति" (छान्दोग्य० ७।२३।१।) लेकिन जिस तरह जलमे पडा प्रतिविम्ब तभी दीखता है जब जल निश्चल एव निर्मल हो, जरा भी हिलता डोलता न हो। वैसे ही आत्मानन्दका प्रतिबिम्ब तभी अनुभवमे आता है जब अन्त करण निर्मल और निश्चल हो। आईना मैला और वराबर नाचता हो तो प्रतिविम्व दिखेगा कैसे ? इसीलिये योगी और आत्मदर्शी लोग बरावर ही चित्तकी शान्ति और निर्मलताकी कोशिश करते है। गीताने भी इस वातपर सबसे ज्यादा जोर दिया है। रागद्वेप आदि ही चित्तकी मैल है। उसकी चचलता तो सभीको विदित है । क्षण भरमे दिल्लीसे कलकत्ता और वहाँसे तीसरी जगह जा पहुंचता है । कही भी टिकना तो वह जानता ही नही । बन्दर या पारेसे भी ज्यादा चचल उसे कहा गया है । विजलीसे भी ज्यादा तेज वह दौडता है। अब रही विषय सुख या भौतिक पदार्थो से मिलनेवाले सुखकी वात । वेदान्तियोका इसमे कहना यही है कि जब मनुष्यको किसी चीजकी सबसे ज्यादा चाट होती है तो वह दिन-रात उसीका खयाल करता रहता है । इस प्रकार उसका मन एकाग्र हो जाता है । फलत अन्त करणकी चचलता दूर हो जानेके कारण उसमे प्रात्मानन्दका लहलहाता प्रतिविम्व नजर आता है। मगर मन निश्चल एव एक ही जगह बँधा होनेपर भी वाहरकी उसी चीजमे लगा है जिसकी चाट या प्रचड अभिलापा है। इसीलिये उस आत्मानन्दको अनुभव कर नहीं सकता, उसे देख या जान नही सकता।