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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५३१

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५४० गीता-हृदय . ऐसो हीके लिये है। लोकसग्रहके लोक या लोग ऐसेही सीधे जन है। उन्हीका सग्रह या सन्मार्गपर जाना, यही लोकसग्रह है । उन्हें इधर-उधर भटकने न देके एक रास्तेमें बाँध रखा जाता है। ऐसे ही लोगोके बारेमे एक पण्डितजीके श्राद्ध करवानेकी बात कही जाती है । पडितजीका यजमान इतना सीधा था कि ठीक ही आंख मूंदके चलता था। पिंडदानके समय पहले ही पडितजीने उससे कह दिया कि मै जो बोलूँ वही तुम भी बोलना । उनका प्राशय तो था मत्रोंसे, कि मैं जो मत्र जैसे पढं तुम भी वैसे ही पढते जाना । मगर वह था इतना सीधा कि उसने ऊँटकी पकड पकड ली। जब पडितने श्रीगणेश करते हुए उससे कहा कि तैयार हो जाओ, तो वह भी चट बोल बैठा किं तैयार हो जाओ। इसपर पडितजीने रज होके कहा कि मै तुमको पिंडदानके लिये तैयार हो जानेको कहता हूँ। फिर तो वह भी बोल उठा कि मै तुमको पिंडदानके लिये तैयार हो जानेको कहता हूँ | अजीब बात थी | पडितजी जो बोलते थे वह भी वही दुहराता जाता था। उनने लाख कोशिश की कि उसे समझाके ठीक करें। मगर घटो इस हुज्जतमें लगनेपर भी कुछ नतीजा न हुआ। उसने तो उनकी शुरूवाली बात पकड ली थी। बस, ऐसे ही लोगोंसे यहाँ मतलब है। उन्हें समझानेकी कोशिश करना बला मोल लेना है, जैसी कि पडितजीकी हालत हुई, परीशानी हुई, और अन्त में क्रोधमें पटका-पटकी तक हो गई, जिसमें उसने पडितजीको धर दबोचा। मजबूत तो था ही। खूबी तो यह कि इतनेपर भी वह समझता था कि मै श्राद्ध ही कर रहा हूँ और यही श्राद्ध है। ऐसे लोगोको समझानेकी कोशिश करनेपर वह कहीके नही रह जाते। वह तो ऊँटकी पकडवाली एक ही अक्ल जानते है, जैसा कि हितोपदेशका मेढक केवल भागनेकी एक अक्ल- एक बुद्धि जानता था । उपदेश देनेमें वह बुद्धि भिन्न हो जाती है, टुकडे- टुकडे हो जाती है, बँट जाती है और वह आदमी कहीका रह जाता नही ।