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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५३३

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५४२ गीता-हृदय हमने पहले गुणवादके प्रकरणमे इन तीनो गुणोके सभी पहलुवोपर पूर्ण प्रकाश डाला है । वही बताया है कि किस तरह गुण आपसमें मिलके चलते और सभी कर्म करते-कराते है। इन्द्रियोका भी विवरण अच्छी तरह दिखाया गया है कि कौनसी इन्द्रियाँ किस गुणसे बनी है। इन्द्रियोको और समूचे ससारको भी-इसीलिये कर्मोको भी-गुण क्यो कहते है यह भी बताया गया है। ऊपरके तीन (२७-२६) श्लोकोमे यही बातें कही गई है। इसीलिये कर्मों और इन्द्रियोको भी गुण कहा है और गुणो तथा कर्मोके बँटवारे या विभागकी भी बात इसीलिये कही गई है। मयि सर्वाणि कर्माणि सन्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥३०॥ (इसलिये तुम) आत्मज्ञानके बलसे सभी कर्मोको मुझमें-भगवान- मे--अर्पण करके (और) सभी तरहकी आसक्तियो एव ममताओंसे रहित होके मस्तीके साथ लडो ।३०। यहाँ जो 'अध्यात्मचेतसा' दिया है, ठीक इसी तरहकी वात "चेतसा सर्वकर्माणि" (१८५७) मे आई है। गौरसे देखनेसे मालूम होता है कि दोनो जगह एक ही बात कही गई है। मगर अठारहवें अध्यायवाले श्लोकके उत्तरार्द्धमें "बुद्धियोगमुपाश्रित्य" शब्द भी आया है। उससे पूर्वके (५०-५६) श्लोकोमें ज्ञाननिष्ठाकी ही बात आई है। सो भी सबसे ऊँचे दर्जेकी--परा- -ज्ञाननिष्ठाकी वात । उसीके सिलसिलेमें छठे अध्यायके ध्यानयोगकी ही तरह वहाँ भी ध्यानयोगका और उसके साधन-स्वरूप नियमित भोजन आदिका वर्णन पाया है। इससे स्पष्ट हो जाता है समाधि वगैरहके द्वारा पूर्ण आत्म-साक्षात्कार और आत्मानुभवकी वात वहाँ कही गई है। यही वजह है कि उसी समाधिकी सिद्धिके लिये कर्मोका स्वरूपत त्याग भी जरूरी हो जाता है । यह वात वहाँ भी आई है। मगर आत्म- ज्ञान होनेके बाद भी शायद कर्मोके त्यागपर हठ होने लगे, इसीलिये यह