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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५५

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गीताका योग ३७ . सभावना करके उन्ही तीनोकी रोक लिखी है। कर्म करनेवालोको उनमें एक पर भी दृष्टि नही दौडाना चाहिये, एकका भी खयाल-पर्वा- नही करना चाहिये, यही आदेश ४७ और ४८ श्लोकोके शेष अशोमे दिया है। इन तीनोके सिवाय दायरे (वृत्त) के भीतर भी वृत्तके अलावे एक चीज है, एक खतरा है। उससे भी आगाह कर दिया गया है। जो इन चार खतरोसे बच जाता है वही पक्का योगी या कर्मयोगी होता है, यही गीताका कहना है। पहलेकी दो चीजो-दो खतरो--मे एक है कर्मके फलका खयाल, उसका चिन्तन, उसकी इच्छा, फलेच्छा या फलका सकल्प । मनमे फलके स्वरूपकी कल्पना करके ही किसी काममे आमतौरसे हाथ बढाते जो है । दूसरा है कर्मका त्याग या उसका न करना। ऐसा होता है कि या तो योही कर्ममे जी नही लगनेके कारण उसे करते ही नही; या यदि फलकी इच्छा या सभावना ही न हो तो भी कर्म नही करते है। इसलिये कर्मके फलकी इच्छाकी ही तरह अकर्म या कर्मका त्याग, उसे छोड देना भी कर्मके पहले ही आ जाता है-यह वात कर्मके दायरेमे पाँव देनेके पहले हो आ जाती है। दायरेके वाहर आगे जो चीज दायरेमे पाँव देनेपर आती है और जिससे खतरा है वह है उस कर्मका खुद फल ही। कर्म करनेके पहले तो मनमे फलका सकल्प मात्र करते है । मगर कर्म शुरू कर देने और पूरा करने तक तो साक्षात् फलपर ही नजर जा पडती है। इसोलिये यह भी एक खतरा है । चौथा खतरा है खुद कर्मसे ही-वृत्त या दायरेसे हो, यदि कर्ममें आसक्ति, सग, ममता, अन्धप्रेम (blind attach- ment) हो जाय। यह कर्मकी आसक्ति भी भारी खतरनाक है। यह भी याद रखना चाहिये कि जो शुरूके दो खतरोमे कर्मत्यागको गिनाया है उसका भो मतलव है कर्मके छोड देनेकी आसक्ति या हठसे ही। जैसे कर्म करनेकी आसक्ति या हठ बुरा है, ठीक उसी प्रकार उसके न करनेका -