सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५६० गीता-हृदय न एवाय मया तेऽट योग प्रोक्त पुरातन । भक्तोति मे मना चेति रहल्य होतदुत्तमम् ॥३॥ यह नहीं प्राचीन योग जिने प्राज मैने तुमने कहा है। (योनि) तुम मेरे नापी यांनभस्त (दोनो ही) हो (और) यह भी अत्यन्त गोप्नांच चीज है। यहाँ दो एर जररी वानं जानके आगे वह तो ठीर हो। आज तो पुतना नाफ पता चलता नहीं कि वान क्या है। मगर स्मृतिणे एव इतिहान-गणोको देवनेने यही पता लगता है कि भगवानने जोनी सृष्टि की वह अादित्य, नयं या विवन्वान्ने ही गुम हुई। उनने विवस्वान्- को बनाया उत्पर जिया। विवस्वानने मनुको और मनुने इन्चातुनी। उनले बाद आगेवा विस्तार चला। इतना तो सही है, जिन पहल लोग भी मानते थे और पाजका विज्ञान भी मानता है, कि मूर्य अपार गक्तियोका केन्द्र है। वैदिक मनोमे इनका बहुत कीर्तन आता है। गायत्रीमन, जो हिन्दुयोरा प्रतिदिन जपनेका सर्वप्रधान मत्र है, मक्किा या मृप्टिके विस्तार पग्नेवाले त्पनें ही सूर्यका ध्यान करनेगे बात कहता है । नर्यन कने जीवसृप्टिका विकास हुआ यह बात यहाँ रहने है नहीं। हम तो गीतापी परम्पगमे ही मतलब है। यह भी रिवाज पहले था कि अपने पुरोको पिता ही आवम्यन एक गोपनीय बातें बता दिया करता था। नीलिये पिता-जुनका ही नाता गग- गिप्यका भी हो जाता था, हां, जब किसी कारणसे पिता उपदेश न । सके, या वह ऐनी बाते न जानता हो जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण यौन आवश्यक है तभी दूसरे गुत्ने वह नीली जाती थी। वस, यही गुरुशिप्पती प्रणाली पहने थी जिने परम्परा गन्दने यहां याद किया है। इसे परम्पन ही कहीं भी है । इस प्रकार अपने-अपने पुत्रोको ही जब लोग उपदेश करते थे, नो इसी नियमके अनुसार भगवानने अपने पुत्र विवस्वानको, विवन्गनने