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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५७२

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चौथा अध्याय मन और बिना ही होते है, (इसीलिये) जिसने ज्ञानरूपी आगमे सभी कर्म जला दिये है, विद्वान लोग उसीको पडित कहते है ।१६। त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥२०॥ (क्योकि) ऐसा आदमी कर्मों और उनके फलोकी आसक्तिको मिटाके बेपर्वाह और हमेशा मस्त रहता है। (इसीलिये) वह कर्मोको करता हुआ भी (दरअसल) कुछ भी नही करता है ।२०। निराशीर्यत्तचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः। शरीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ॥२१॥ जो सभी इच्छा-आकाक्षात्रोको लात मार चुका है, जिसने बुद्धिको अपने काबूमें कर लिया है (और) जिसने सभी डल्ले-पल्लेसे नाता तोड लिया है, (ऐसा आदमी) केवल देह या इन्द्रियोसे ही कर्मोको करता हुआ भी पाप और बुराईके पास जातातक नही ।२१। यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वाऽपि न निबध्यते ॥२२॥ योही जो कुछ भी मिल जाये उसीसे जो सन्तुष्ट हो, रागद्वेष-हर्ष- विषाद-काम-क्रोधादि द्वन्द्वोसे जो बहुत दूर हो गया हो, जिसमे वैर- विरोध या दूसरोकी सफलतासे होनेवाली जलन न हो और जिसके दिलपर कामके पूरा होने या न होनेका कोई प्रभाव न पडे वह आदमी सभी कर्मोको करके भी बन्धनमे हर्गिज नही पडता ।२२। गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः । यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥२३॥ जो आसक्तिशून्य है, जो सभी बन्धनोसे रहित है, (इसीलिये) जिसकी बुद्धि आत्मज्ञानमें ही डूबी है जो स्थितप्रज्ञ है-और जो (केवल) यज्ञके ही लिये कर्म करता है उसके कर्म जडमूलसे खत्म हो जाते है ।२३।