सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चौथा अध्याय नियम बडे ही सख्त है। (ये पाँच दलोमे विभक्त है। और वे है) अन्नादि पदार्थोसे यज्ञ करनेवाले, तपरूपी यज्ञके करनेवाले, अष्टाग योगरूपी यज्ञ करनेवाले, सद्ग्रथोके पाठरूपी यज्ञके कर्ता और ज्ञान यज्ञके करने- वाले ।२८ अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे । प्राणापानगतीरुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥२६॥ (तीन तरहके और भी लोग है जो यज्ञ करते है और उनमे) एक तो अपानमे प्राणका ही हवन यानी पूरक करते है। दूसरे प्राणमे ही अपानका हवन यानी रेचक करते है। तीसरे प्राण और अपान दोनोकी क्रिया रोकके कुम्भकमे ही लगे रहते है ।२६। अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति । सर्वेऽप्यते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥३०॥ यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् । नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥३१॥ (पन्द्रहवे प्रकारके) कुछ और भी है जो खानपान आदिपर सख्त सयम करके इन्द्रियोकी क्रियाअोको प्राणकी क्रियाओमें ही हवन कर देते है। (इस तरह) ये सभी यज्ञ करनेवाले इन्ही यज्ञोके द्वारा (अपने दिल- दिमागकी सभी) गन्दगियोको धो डालते है (और) यज्ञशिष्ट-यज्ञके बाद बचे हुए--अमृतको ही भोगते हुए सनातन-नित्य-ब्रह्मको प्राप्त कर लेते है । हे कुरुसत्तम,-कुरुवशके दीपक,-जो यज्ञ नही करता उसका तो काम यही नहीं चल सकता। परलोकका तो कहना ही क्या ३०॥३१॥ एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । कर्मजान् विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥३२॥ इस प्रकार अनेक तरहके यज्ञ वेदमे प्रमुख रूपसे कहे गये है। कर्मोंसे ?