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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५७६

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चौथा अध्याय बातमे ही) भस्म कर डालती है। उसी तरह ज्ञानरूपी आग भी सभी कर्मोको भस्म कर देती है ।३७। अब आगे ज्ञानकी प्राप्तिके अन्य साधनोका विचार तीन श्लोकोमे करके ४१वेमें पुनरपि इसी कर्म-अकर्मका उपसहार करेगे । फिर अन्तिम श्लोकमे अध्यायके उपदेशका निचोड कहके अर्जुनको तैयार हो जानेकी बात कहेगे । इसलिये उचित है कि यहीपर पीछेके १६ (१६-३७) श्लोको- का सिंहावलोकन करके देखे कि उनसे कहाँतक १८वेके कर्म-अकर्मवाले सिद्धान्तका स्पष्टीकरण होता है और सक्षेपमे उनमे कहा भी क्या गया है। सबसे पहले शुरूके पाँच (१६-२३) श्लोकोको ही ले। इनमे २१वेंको छोड शेष चारोमे कर्मोके करते रहने पर भी मनुष्य कर्मरहित, अकर्म या कर्मत्यागी कैसे हो जाता है यही बात कही गई है। बेशक, चारोमें कुछ न कुछ नई बाते भी है। फिर भी इन सबोको मिला लेनेपर ही हम इस निश्चयपर पहुँच पाते है कि किस दशामें-कैसी मनोवृत्ति रहनेपर- मनुष्यके कर्म अकर्म बन जाते है और कर्मोके करते रहनेपर भी कर्मत्याग या सन्यासका काम पूरा हो जाता है । सन्यासका भी तो प्रयोजन यही है कि कर्मोके बन्धनोंसे छुटकारा हो जाय और वही बात यो भी हो जाती है। इसलिये यहाँ अर्थत सन्यास है, न कि स्वरूपत । क्योकि स्वरूपत तो कर्म करते ही रहते है। तो अब यह देखे कि इन श्लोकोमे क्या-क्या बाते है जो कर्मको अकर्म बनाती है। तत्त्वज्ञान तो चारोमे ही स्पष्टतया और अर्थात् भी आया ही है। मगर उसके फलस्वरूप जो मनोवृत्ति होती है उसीसे हमारा मत- लव है । पहले श्लोकमे काम और फलादिकी कल्पना या उनकी आसक्ति, इन दोनोका पूर्ण त्याग आया है। मगर इसे वे सकल्पके रूपमे कहा है । दूसरे--२०वे--मे कर्म और फलकी आसक्तिके त्यागके साथ बेपर्वाही