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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५८४

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चौथा अध्याय ५६३ यज्ञ हो रहा है । तो फिर कर्मोके फल हमे मिलेगे कैसे ? हां, यदि ऐसी भावना न रहती तो भिन्न-भिन्न कर्मोकी कल्पना करके हम उनके फलोमे फँसते । मगर अब तो यज्ञका ही फल मिलेगा और वह होगी मनकी एकाग्रता । इसीलिये इन कर्मोसे यज्ञ हो रहा है या इन कर्मोके रूपमे ही यज्ञ हो रहा है यह ज्ञान कर्मोसे छुटकारेके लिये आवश्यक है । एक ही बात और रह जाती है जो इस श्लोकमे आई है। जब यज्ञोके भीतर अात्मज्ञान या ब्रह्मसमाधि भी आ गई, जिसका वर्णन "ब्रह्मार्पण"मे किया है, तो उसे कर्मजन्य कसे कहा जायगा, यह प्रश्न हो सकता है । परन्तु यहाँ तो साफ ही उस समाधिको उसी श्लोकमे “कर्मसमाधि" कह दिया है । वहाँ तो क्रियामे ही ब्रह्मकी भावना अथसे इतितक है, और अगर कर्म होगा ही नही—क्रिया होगी ही नहीं तो यह भावना होगी कैसे ? इसीलिये वह भी कर्मजन्य ही है, इसमे कोई शक नहीं। इसीसे उसे सभी यज्ञोसे श्रेष्ठ कहा है । २८वे श्लोकवाला ज्ञानयज्ञ यद्यपि व्यापक है और आत्मज्ञानके अलावे बाकियोको ही यहाँ ज्ञानयज्ञ मानना उचित प्रतीत होता है। फिर भी ३३वे श्लोकमे ज्ञानयज्ञ कहने, प्रसगको देखने तथा उत्तरार्द्धमे सिर्फ ज्ञान शब्द होनेसे भी “श्रेयान्द्रव्यमयात्", (४१३३) मे ज्ञान यज्ञशब्दसे केवल आत्मज्ञानका समझा जाना रुक नहीं सकता। यद्यपि यज्ञोको “यज्ञक्षपितकल्मषा"के द्वारा पवित्र करनेवाले कहा है, तथापि “नहि ज्ञानेन सदृश पवित्रमिह विद्यते” (४।३८) मे ज्ञानको जो सबसे बढके पवित्र करनेवाला कहा है उससे भी उसकी यज्ञरूपता सिद्ध हो जाती है । यह ज्ञान अद्वैत आत्माका ज्ञान ही है यह बात “ये न भूतान्य- शेषेण" (४१३५) श्लोकसे स्पष्ट हो जाती है । क्योकि जब आत्मा और ब्रह्म एक ही होगे तभी तो सभी पदार्थ आत्मामे और ब्रह्ममे भी नजर आयेगे। इस प्रकार ३५वे श्लोक तक कर्मको अकर्म कर देनेकी बात कह दी ३८