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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६०१

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पाँचवाँ अध्याय इसीलिये अपने काबूम हो गया है (और उसके फलस्वरूप) इन्द्रियाँ भी काबूमें है वह खुद सभी सत्ताधारी पदार्थोंकी आत्मा ही हो जाता है। (इसीलिये) कर्म करते हुए भी वह उसमे सटता नही ।७। नैव किञ्चित्करोमीतियुक्तो मन्येत तत्त्ववित् । पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रनश्ननाच्छन्स्वपन्श्वसन् ॥६॥ प्रलपन्विसृजन्गृल्लभुन्मिषन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥६॥ (इस प्रकार) पूर्ण अवस्थाको प्राप्त योगी तत्त्वज्ञानी हो जानेपर देखता, सुनता, छूता, सूंघता, खाता, चलता, सोता, साँस लेता, बोलता, मलमूत्र त्यागता, पकड़ता और पलकें मारता हुआ भी यही धारणा रखता है कि यह तो इन्द्रियाँ ही अपने कामोमे लगी है, मै तो कुछ भी करता- कराता हूँ नही ।८।। ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापन पद्मपत्रमिवांभसा ॥१०॥ (लेकिन जो इस तरह पहुँचा हुआ न भी हो ऐसा भी) जो कोई भग- वानको समर्पण करके और हाय-हाय तथा आसक्ति छोडके कर्मोको करता है वह (भी) पापसे वैसे ही नही सटता जैसे कमलका पत्ता पानीमे रहके भी पानीसे नही सटता ।१०। कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥११॥ (क्योकि) कर्म करनेवाले समझदारीसे काम लेके और आसक्ति एव हाय-तोबाको छोडके मनकी शुद्धिके लिये केवल शरीरसे, केवल इन्द्रियोसे और केवल मनसे कर्म करते रहते है ।११॥ युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥१२॥