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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६०८

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६१८ गीता-हृदय यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मनिर्मोक्षपरायणः । विगतेच्छाभयकोधो य. सदा मुक्त एव स. ॥२८॥ बाहरी विषयोको बाहर ही रोकके, दोनो दृष्टियोको भौंके बीचमें ही टिकाके और नासिकाके रास्ते बाहर-भीतर जाने-आनेवाले प्राण- अपानको मिलाके-कुम्भक करके-एकमात्र मोक्ष यानी आत्मामे ही खयाल जमाये हुए जो मननशील सन्यासी अपने मन और बुद्धिको बखूबी कावूमें रखता तथा इच्छा, भय और क्रोबसे सर्वथा नाता तोड लेता है वह हमेशा ही मुक्त है ।२७।२८। भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूताना ज्ञात्वा मां शांन्तिमृच्छति ॥२६॥ सब यज्ञो और तपस्याओंके भोगनेवाले, सब लोगोंके बडेसे बडे शासक और सबोके कल्याण चाहनेवाले मुझ परमात्माको जानकर ही (वह) शान्ति प्राप्त करता है ।२६। इससे पूर्वके दो श्लोकोमे ध्यान, समाधि या पातजल योगका सक्षिप्त वर्णन किया है। उसके फलस्वरूप जो ज्ञान होता है और जिससे मुक्ति होती है उसीका जिक्र इस श्लोकमें है। इस श्लोकका आशय यही है कि आत्मा और परमात्माको एक ही देखना यही आत्मज्ञान है । समाधिस्थ सन्यासी यही अनुभव करता है कि मै ही खुद सब चीजोका करने-धरनेवाला हूँ, सारे ससारके कार-बारका चलानेवाला हूँ । असलमें "अह हि सर्व- यज्ञाना भोक्ता च प्रभुरेव च" (९।२४) आदिमें जो कुछ कहा गया है उसीका यहाँ उल्लेख है। जिन कर्मोंका वर्णन इस अध्यायमें आया है वह तो नीचेसे लेकर ऊँचे दर्जेतकके सभी है । नवे अध्यायमें स्पष्ट ही कहा है कि लोग भगवान तो ठीक-ठीक न जानके औरोकी करनेके कारण ही पतित हो जाते है, हालांकि सब पूजा, यज्ञादिका ‘फल भगवान ही देते हैं, फिर चाहे वह देवी-देवता आदि किसीके निमित्त पूजा आदि