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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६९८

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नवां अध्याय ७१५ फलत "सम्यग्व्यवसित."मे कह दिया है कि उसका यह व्यवसाय, यह उद्योग उचित ही है। वह उद्योग और यत्न करता है यही आशय है । जल्द ही धर्मात्मा होनेकी भी बात इसीलिये कही गई है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा करनेके कुछ समय बाद उसका दुराचार धीरे-धीरे बन्द होके वह धर्मात्मा बनता है, होता है। मगर शुरूसे ही अनन्य भक्त हो जानेपर तो इसकी जरूरत हई नहीं । विना धर्मात्मा हुए अनन्य भक्त कैसा? यदि अजामिल आदिकी जैसी बात कहे, तो भी ठीक नही । क्योकि अजामिल दुराचारी भले ही रहा हो । मगर सुदुराचार या अत्यत दुराचारी हर्गिज न था। हम तो उसे प्राय धर्मव्याध जैसा ही मानते है । “न मे भक्त प्रणश्यति"का भी यही तात्पर्य है कि मेरी तरफ भावना करके जो भी थोडा बहुत किया जाता है वह कभी नष्ट नहीं होता। किन्तु धीरे-धीरे सूदके साथ वढता है । वत्तीमवे और तेतीसवें श्लोकोमे स्त्रियो, वैश्यो और शूद्रोको पाप- योनि या छोटा और ब्राह्मणो तथा क्षत्रियोको पुण्यजन्मा कहा है । क्योकि ‘पापयोनय 'के विपरीत "पुण्या" शब्द ब्राह्मणो एव राजर्षियो-क्षत्रियो- दोनो ही~का विशेपण है। देखनेसे यही उचित भी प्रतीत होता है । 'भक्ता' भी दोनो हीके लिये आया है। इससे सिद्ध हो जाता है कि गीता और महाभारतके समय हमारी वर्णव्यवस्था न तो आज जैसी थी और न जैनी गुरुमे थी वैसी भी थी। अाज तो ब्राह्मणोको ही ऊंचा स्थान प्राप्त है। क्षनिय उनसे नीचे है। इनी प्रकार वैश्योका स्थान शूद्रोसे ऊँगा है। आज इन्हे पाप-योनि तो हर्गिज नहीं मानते, यद्यपि स्त्रियोको दुर्भाग्यम ऐना ही मानते है । यहाँ गीतामे ब्राह्मण एवं क्षत्रिय तथा वैश्य एक गद्रको नमकक्ष कह दिया है । चौथे अध्यायमें जो "राजयो विदु' कहा है उसने भी क्षत्रियोका दर्जा यदि ऊत्रा नहीं तो ब्राह्मणोके समकक्ष तो निन्न हो जाता है। विपरीत उमफे गुरुमे चारो वर्णोंको शरीरके