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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७१९

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७३८ गीता-हृदय वृष्णियोमे कृष्ण (और) पाडवोमे अर्जुन हूँ। मुनियोमें व्यास और कवियोमे कवि शुक्राचार्य हूँ।३७। दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् । मौनं चैवास्मि गुह्याना ज्ञान ज्ञानवतामहम् ॥३८॥ दूसरोको दवानेवालोमे दड हूँ (और) विजयेच्छुअोमें नीति हूँ। गोपनीयोमे मौन (और) ज्ञानियोमे ज्ञान मै हूँ ।३८१ यच्चापि सर्वभूतानां बीज तदमर्जुन । न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूत चराचरम् ॥३॥ हे अर्जुन, सभी पदार्थोंका जो बीज है सो भी में ही हूँ। (क्योकि) स्थावर और जगम पदार्थोमे ऐसा एक भी नही है जो मेरे विना टिक सके ।३६। नात्तोऽस्ति मम दिव्याना विभूतीना परन्तप । एष तूद्देशत. प्रोक्तो विभूतेविस्तरो मया ॥४०॥ हे परन्तप, मेरी दिव्य विभूतियोका आरपार नहीं है । यह तो मैने विभूतियोका विस्तार (केवल) सक्षेपमें (नमूनेके तौरपर ही) कहा है ।४।। यद्यद्विभूतिमत्सत्त्व श्रीमज्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छ त्व मम तेजोऽशसम्भवम् ॥४१॥ (सवका निचोड यही है कि) जो-जो पदार्थ चमत्कार वाले, गुण- वाले या शक्तिशाली हो उन-उनको मेरे ही तेजके अगसे ही बने मानो ।४११ अथवा बहुनतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन । विष्टभ्याहमिद कृत्स्नमेकाशेन स्थितो जगत् ॥४२॥ अथवा, हे अर्जुन, इस तरह बहुत बाते जाननेसे तुम्हारा क्या होगा? (तुम यही समझ लो कि) इस समूचे जगत्को मै अपने एक कोनेमें रखे हुए पडा हूँ।४२॥