सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रात्माका स्वरूप , १३वे श्लोकमे आत्माकी अविनाशिताकी दलील दी गई है। कहते है कि “एक ही जन्ममे कुमारावस्था, युवावस्था, तथा वृद्धावस्थासे हमे आमतौरसे गुजरना होताहै"--"देहिनोऽस्मिन्यथादेहे कौमार यौवन जरा।" यह याद रखना होगा कि इन तीनो अवस्थाओका शरीर एक हर्गिज नहीं होता। कमसे कम तीन तो होते ही है जो एक दूसरेसे सोलहो पाने जुदा होते है । यो तो एक एक अवस्थामे भी जाने कितने जुदा-जुदा शरीर हो जाते है। जिन अनन्त परमाणुप्रोसे खून, मास, हड्डी आदिके जरिये किसी एक अवस्थाका शरीर बना होता है दूसरी अवस्थामें वह एक भी पाये नही जाते । वे तो जाने कहाँ गायब हो जाते है और उनकी जगह विल्कुल ही नये और सिराले परमाणु (atoms) ले लेते है । नही तो तोनो अवस्थामोमे पार्थक्य क्यो होता ? यो भी कुमारावस्थाके शुरूमे होनेवाली देहके साथ युवावस्थाके अन्तिम परिपाकके समयके शरीरसे कोई मिलान हो सकती है क्या ? वे दोनो तो साफ ही जुदे है-जुदे मालूम होते है ! फिर वृद्धावस्थासे मिलानका सवाल क्या २ विभिन्न अवस्थाप्रोके जुदे-जुदे और परस्पर विरोधी काम ी इस बात के सबूत है कि शरीर जुदे-जुदे है । बाल्यावस्थाकी निपट असमर्थता और जवानीकी पूर्ण समर्थताके बाद बुढापेकी निराली असमर्थता ही पुकार-पुकारके अपने-अपने शरीरोको अलग बताती है । इसे यो भी समझ सकते है। नया चावल कोठीके भीतर बन्द करके रखते है और किसी भी तरफसे हवा न जा सके इसका पूरा प्रबन्ध करते है-कोई जरा भी छिद्र या सूराख रहने नहीं देते। नही तो बाहरसे कोडे घुस जायँ और बरसाती हवा चावलको चौपट कर दे। फिर भी चार-छे सालके बाद अगर उन्ही चावलोको निकाले, पकाये और खाये तो निराला ही स्वाद, निराली गन्ध और निराली तृप्ति होती है जो बाते नयोमे पाई ही न जाती थी। पचनेमे तव भारी थे अव हलके हो गये,