सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७८७ तेरहवाँ अध्याय श्रीभगवान कहने लगे (कि) हे कौतेय, इस शरीरको (ही) क्षेत्र- खेत–कहा जाता है (और) जो इसे बखूबी जानता है उस (आत्मा)को ही उसके जानकार लोग क्षेत्रज्ञ या खेतिहर कहते है ।। क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत । क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोनिं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥२॥ हे भारत, सभी क्षेत्रोमे (रहनेवाला) क्षेत्रज्ञ भी मुझीको जानो। (इस तरह) क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका जो ज्ञान है वही ज्ञान में ठीक मानता हूँ ।। यहाँ 'भी'के मानीमे जो 'च' आया है, और इसीकी ओर इशारा करते हुए उत्तरार्द्धमे जो क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ दोनोका उल्लेख है उससे भी, यही मानना पडता है कि 'भी' कहनेसे क्षेत्र ही लिया जाना चाहिये। इस तरह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनो ही परमात्मा या ब्रह्मसे जुदा सिद्ध नही होते । फलत अद्वैतवाद स्थापित होता है। इसी अद्वैत ज्ञानको कृष्ण अपना मत, निजी मन्तव्य कहते हुए सही बताते है । यहाँ सभी क्षेत्रोमे- के अर्थमे “सर्वक्षेत्रेपु" कहके क्षेत्रज्ञ' जो एक वचन दिया है उसका आशय यही है कि एक ही आत्मा सबमे व्याप्त है। उसीके ये अनन्तरूप है, शरीर है और सब कुछ है। इसीलिये अर्जुनके वास्ते सभीकी जानकारी और चिन्ता जरूरी थी। तत्क्षेत्र यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् । स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥३॥ वह क्षेत्र जो कुछ है, जितने प्रकारका है और उसके जितने विकार या कार्य है, (साथ ही) वह (क्षेत्रज्ञ) भी जो कुछ है और उसका जो प्रभाव है, सभी कुछ सक्षेपमे मुझसे सुन लो ।३। ऋषिभिर्वहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् । ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥४॥