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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७७७

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तेरहवां अध्याय ७६७ (इनमे भी) (सभी पूर्वोक्त) विकारों और गुणोको भी प्रकृतिसे ही उत्पन्न जानो।१६॥ यहाँ अनादि कह देनेसे यह प्रश्न जाता रहा कि आत्माके फंसने या प्रकृतिके ससर्गमें आनेकी क्या जरूरत थी। क्योकि यह चीज तो कभी शुरू हुई नही कि इसकी वजह बताई जाय । यह तो सदासे ऐसी ही बनी है। कार्यकरणकर्तृत्त्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥२०॥ कार्य और करणको बनानेमे कारण प्रकृति ही है । पुरुष (तो सिर्फ) सुख-दु खोके भोगनेमे ही कारण है ।२०। पूर्वके श्लोकके उत्तरार्द्धमे जो कहा गया है,कि सभी विकारो या कार्यों और गुणोको प्रकृति ही पैदा करती है, उसीका स्पष्टीकरण इस श्लोकके पूर्वार्द्ध में है । इसीलिये कार्य शब्दका अर्थ है व्यष्टि तथा समष्टि शरीर । इसी प्रकार करणके मानी है व्यष्टि-समष्टि सभी इन्द्रियाँ, जिनमे बुद्धि आदि आ जाती है। इन्हीसे सब ससार चलता है । कही-कही कार्य- कारण पाठ है । उस दशामे पूर्वोक्त महत्तत्त्वादि सातको कारण और शेष इन्द्रियादिको कार्य कहनेमे ही तात्पर्य है । गुण शव्दके मानी है गौण या पीछे बनी इन्द्रियादि और तीनो गुण भी। हर हालतमे समस्त ससार ही आ जाता है। केवल एक ही वातकी कमी रह जाती है, जिसे सुख- दुखादिका भोग कहते है । क्योकि उसके विना ससार पूरा कैसे होगा यदि सुख-दुःखादि किसीको भोगना न हो तो ससार कैसा? सारा मामला ही फीका हो जाय । इसलिये उसकी पूर्ति उत्तरार्द्ध कर देता है कि पुरुष या आत्माके ही चलते भोग होते है । यदि वह न हो तो इन्द्रियादि जड पदार्थ कुछ करी न सके । इसीलिये तो पुरुषकी सत्ता भी मानना जरूरी हो जाती है। प्रकृति एव उससे बने पदार्थ तो जड़ ? तब तो