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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८०१

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पन्द्रहवाँ अध्याय ८२१ मुझे मत मारो, तुम्हे शपथ है, मै खूब मोजमे हूँ"। देखा न ? यही है भारी बन्धन । आत्मा जही हो, मौज ही मालूम पडती है । इसीसे नीचे-ऊपर, इधर-उधर सर्वत्र ही जहाँ भी इस ससारकी शाखाये है वन्धनका ही काम करती है। क्योकि आखिर त्रिगुणात्मक तो हई और तिहरी रस्सी बडी मजबूत भी होती है । सभी जगह इन्द्रियोके विषय सुन्दर कोपलो जैसे लुभावने दीखते है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि बुरे-भले कर्मोके सस्कारके रूपमे वासनाये पैदा होती है। फिर उनके फलोको भोगनेके बाद दूसरे ढगकी वासनाये पैदा होती है, जिन्हे चसक कह सकते है । उन्हीके करते हम पुनरपि कर्मोमे लगते है, इस तरह यह चक्र चालू रहता है । यो तो वास्तविक मूल ब्रह्म हई। मगर जिस मूलको काटना है, ताकि यह वृक्ष सूख जाये, वह तो यह वासनाये ही है । ये इतनी गहरी और नीचे पडी रहती है कि इन्हे पकडना कठिन है। यही है इस अश्वत्थकी अपनी निजी जडे । अश्वत्थकी जडे यो भी सचमुच बहुत गहराईमे जाती है । वे वहुत ज्यादा होती भी है । वासनायो- की भी यही हालत है । ये भी अनन्त है, बहुत फैली है । आगाको वात यही है कि पूर्ण-विवेक-दृप्टिके सामने न तो ये वासनाये और न ससारका यह लुभावना रूप ही टिक सकता है। केलेकी मूसलीके छिलकेकी तरह उधेड-बुन करते जाइये और अन्तमे कुछ भी सार हाथ नहीं लगता । पता ही नहीं चलता कि कहाँ शुरू, कहाँ बीच और कहाँ अन्त है। समूचेका समूचा निस्सार ही सिद्ध हो जाता है इस पन्द्रहवे अध्यायमे जो खूबी है वह यही कि इसने हमारी पुरानी भावनाग्रोने फायदा उठाके वासुदेवके रूपमे ही मसारवृक्षको सामने ला दिया है । इस रूपकके द्वारा इने काट वहानेकी भावना भी जागृत कर दी है। नहीं तो कहाँ क्या करें और इसे कैसे खत्म करे यह अभाह समुद्रकीसी बात हो रही थी। इसमें उपनिषदोकी भी सहायता इसे मिली है। उनका ।