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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८१८

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८३८ गीता-हृदय दशामें जितनी भी सात्त्विक वार्ते मनुष्यमे पाई जाती है उन्हीको देवी सम्पत्ति कहा है । विपरीत इसके रजोगुण एव तमोगुणकी वृद्धिकी दशामें जो वाते चौदहवें (१४११२-१३) मे पाई जाती है तथा उन्हीके फलस्वरूप उनका जितना भी परिवार हो वही आसुरी सम्पत्ति है। इसमें भी तामसी बातोपर ही ज्यादा जोर है। इस दलमें उन्हीकी प्रधानता है। लेकिन जब राजसी बातें दैवी सपत्तिमें आ सकती है नही, तो उन्हे आसुरीमे ही जाना होगा। अभिजात शब्दमें जो 'अभि' आया है उसके चलते ऐसा अर्थ हो जाता है कि जो दैवी या आसुरी सम्पत्तियोमें लिपटा और सना हुआ हो, जिसके चारो तरफ वही पाई जाये। श्रीभगवानुवाच अभयं सत्त्वसशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप प्रार्जवम् ॥१॥ अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग. शान्तिरपैशनम् । दया भूतेष्वलोलुप्त्व मार्दव हीरचापलम् ॥२॥ तेज क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवन्ति संपदं देवीमभिजातस्य भारत ॥३॥ श्रीभगवान बोले- हे भारत, निर्भयता, अन्त करणकी निर्मलता, ज्ञान एव योगमें जम जाना, दान, इन्द्रियोपर नियत्रण, यज्ञ, सद्ग्रथ-पाठ, तप, नम्रता, अहिंसा, सत्य, क्रोधका त्याग, पदार्थोंका त्याग, शाति, दूसरेका ऐब न देखना, पदार्थों पर दया, विषयोकी ओर ज्यादा झुकाव न होना, कोमलता, लज्जा, चपलताका न होना, हिम्मत, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, दूसरोको सतानेका खयाल न. होना, मगरूरीका न होना-(यही चीजे) दैवी सम्पत्तिवालोमे पाई जाती है । श२।३। P