सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीता-हृदय है । सो भी बार-बार । इनके विस्तृत वर्णनके कहनेका आशय यही है कि असुरो या आसुरी स्वभाववालोका यदि वर्णन कही पहले प्राया भी है तो सक्षेपमे ही। दृष्टान्तके लिये "अवजानन्ति मा मूढा" (९।११-१२)- में। इसी प्रकार "कर्मेन्द्रियाणि सयम्य" (३।६) तथा “भुजते ते त्वध पापा” (३३१३) में भी जरासा वर्णन है। तेरहवे अध्यायमे असुरोका तो नही, मगर उनकी प्रकृतिका जरासा "अज्ञान वदतोऽन्यथा" (१३।११)- मे उल्लेख है। इसी तरहके उल्लेख जरामरा आते गये है सही। मगर विस्तृत वर्णन कही न हो सका है । इसीलिये यहाँ एक ही बार पूरेका पूरा दे दिया गया है । हमने इसपर सभी पहलुअोसे विचार करके पहले ही काफी प्रकाश डाला है। प्रवृत्ति च निवृत्ति च जना न विदुरासुराः । न शौचं नापि चाचारो न सत्य तेषु विद्यते ॥७॥ असत्यमप्रतिष्ठ ते जगदाहुरनीश्वरम् । अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहंतुकम् ॥ असुर लोग कर्तव्य और अकर्तव्य जानते ही नहीं। उनमे पवित्रता, आचरण-जैसा कहना वैसा करना और सत्यका तो पता ही नही होता। सत्पदार्थ या ब्रह्मसे ही यह जगत बना है, उसीमे कायम है और अन्तमे उसीमे जा मिलता है, ऐसा न मानके वह जगतको विना ईश्वरके ही मानते है (और कहते है कि) कामवासनाके वशीभत स्त्री-पुरुप या नर-मादाके सम्बन्धसे पैदा होनेके अलावे इसमे और हई क्या ?७।८। वहुत लोगोने इस पाठवें श्लोकके अर्थमें अपने सस्कृतके व्याकरण- ज्ञानका अजीर्ण मिटाया है। उनने कहा है कि अपर तथा पर शब्दोका समास होनेपर अपरपर होगा न कि अपरस्पर, हालाँकि "अपरस्परा क्रियासातत्ये" (पा० ६।१११४४) के अनुसार ही अपरस्पर बनता है। यहाँ क्रियासातत्य या कामका जारी रहना तो हई। सारा संसार ही