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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८५

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७२ गीता-हृदय 4 इस अनोखी उनना बँधा है और उस वन्धनकी सीमा इतनी सकुचित एव निर्धारित है कि कर्मके आगे जो उसका करना या न करना है उसे भी वह देख नहीं मकता, वहाँ भी वह जा नहीं सकता, वहाँ जानेकी भी उसे इजाजत नही है। वहाँ भी उमके लिये 'नो ऐडमिशन' (No admission) ही है । जो बात दिमागमे पानेवाली नही जंचती वही लिखी गई प्रतीत होती है। क्या सूब यह तो ऐसा ही है जैसाकि छुरेकी धारपर होकर गुजरना और फिर भी पविको कटनेसे वाल-बाल बचा लेना! यह तो सबके लिये सभव नहीं। यह तो कोई विरला ही माईका लाल कर सकता है देवो कलाका पारगत तो शायद ही कोई होता है, हो सकता है। ऐमा वही हो सकता है जो प्राणायामकी क्रियासे समूचे शरीरको तौलके ऐसा ऊपर-इतना ऊपर-उठा ले कि पावोका केवल सम्बन्ध ही उम धारपर हो और शरीरका जरा भी भार उसपर न होने पाये। गरीर न तो इतना ऊँचा उठ जाय कि छुरेसे सम्बन्ध ही टूट जाय, क्योकि तव तो उसकी धारपरका चलना कहा जायगा नही ! और न ऐसा ही उठे कि धारपर जरा भी नाममात्रको भी उसका बोझ पडे, क्योकि तव तो पांव ही कट जायगा । फिर भी पांवके द्वारा गरीरका सम्बन्ध भी धारसे बना रहे । उफ, गजवकी करामात है । ठीक यही करामात कर्मके वारेमें भी करनेकी वात ४८वें श्लोकमे कही गई है। प्रश्न होता है कि यह हो कैसे ? यहीपर मदद करने और इस महान् मकटमे उबारनेके लिये साख्य या अध्यात्मज्ञान पा जाता है। ठीक, छुरेपर जुटे गरीरकी ही तरह यहाँ मनको बहुत ऊँचा उठना होगा, ऊंचा उठाना होगा। वह इतना ऊपर चला जाय कि कर्मके अलावे वाकी सभी चीजें अनन्त दूरीपर-बहुत नीचे दूर---पट जायें। उन सवोसे मन वेलाग हो जाय । मगर उमीके साथ कर्ममे सम्बन्ध भी जुटा रहे-