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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८५२

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८७२ गीता-हृदय . ? है। इन्हीको भले, बुरे और मिले हुए भी कहते है। इनके फल भी क्रमश भले, बुरे और मिश्रित ही होते है। इन्हीको इष्ट, अनिष्ट और मिश्र इस अाखिरी श्लोकमें कहा है। इसके विपरीत योगियोका कर्म चौथे प्रकारका होता है, जिसे अशुक्ल-कृष्ण कहते है। इसका अर्थ है-न भला, न बुरा । "कर्माशुक्ल कृष्ण योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्" (४७) योगसूत्र और उसके भाष्यको ध्यानपूर्वक पढनसे इसका पूरा ब्योरा मालूम होगा। बारहवें श्लोकके सात्त्विक त्यागीको उसी योगीके स्थानमें माना गया है । बेशक, राजस और तामस त्यागी साधारण लोगोमें ही आते है । यहाँ प्रश्न होता है कि जब कर्मोका कर्ता आत्मा ही है, तो आसक्ति या फलोके त्याग मात्रसे ही कर्मोके फलोसे उसका पिंड कैसे छूट जायगा अगर कोई चोरी करे तो क्या आसक्ति और फलेच्छाके ही छोड देनेसे उसे चोरीका दड भोगना न होगा ? इसका उत्तर आगेके पांच श्लोक देते है। उनका आशय यही है कि आत्मा कर्मोकी करनेवाली हई नहीं। करने-करानेवाले तो और ही है और है भी वे पूरे पांच । ऐसी दशामे जो आत्माको कर्ता मानता है वह नादान है, मूर्ख है । चोरीकी बात और है । वहाँ जिस शरीरसे वह काम करते है वही जेल-यत्रणा भी भोगता है। पचैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे । साख्ये कृताते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ॥१३॥ अधिष्ठान तथा कर्ता करण च पृथग्विधम् । विविधाश्च पृथक् चेष्टा देव चैवात्र पचमम् ॥१४॥ शरीरवाड्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते न्याय्य वा विपरीतं वा पचते तस्य हेतवः ॥१५॥ तत्रैव सति कर्तारमात्मान केवल तु यः। पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥१६॥ नरः।