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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/९०२

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९२२ गीता-हृदय निष्ठा पूर्ण हो जाय तो उसके बाद क्या हो इस वारेमे यहां कुछ नहीं कहा है। फलत पूर्ववत् दोनो वाते हो सकती है । जव वृत्ति ऊपर चढ जाये तो सब छूट जायें, न चढे तो लोकमगह चालू हो। यही वात "सर्वकर्मा- ण्यपि सदा कुणि" (१८१५६) मे कही गई है। क्योकि वहां जो 'अपि' शब्द है उससे यही अर्थ निकलता है कि सभी कर्म करते हुए भी गाश्वत पद पा जाता है। यह 'भी' साफ ही बताता है कि कर्मोके न करनेवाले भी होते है और उन्हें वेसटके शाश्वत पद प्राप्त होता ही है। मगर कर्म करनेवाले भी उसे प्राप्त करते ही है । यह वात वहुत साफ है। वस, गीतोपदेश पूरा हो गया और जहाँतक गीताधर्मके बतानेका ताल्लुक है कुछ भी कहना शेष रहा नही । हाँ, एक वात रह गई जरूर। अर्जुनने ही यह सुना है और स्वभावत लोग कौतूहलसे समय पाके उससे पूछेगे ही कि कृष्णने आपसे क्या-क्या कहा, क्या-क्या उपदेश आपको दिया ? और हो सकता है कि वह सवोसे “कुल धान साढे बाईस पसेरी"के हिसाबसे ये गोपनीय बाते कहने लग जाय । तव तो अनर्थ ही होगा। एक तो इनकी कीमत सब लोग कर सकते नही। हीरा-जवाहरातके जानकार और ग्राहक तो सभी होते नहीं। कहते है कि किसी नादानको कही हीरेके वटे पत्थरकी ठोकर लगी तो उसने उसे उठाके दूर गलीजमे फेक दिया, ताकि फिर ऐसी ठोकरे किसीको न लगें । यही वात गीताधर्मकी भी हो जायगी। दूसरे, जानकार लोग भी हिचक जायेगे कि हो न हो यह कोई ऐसी ही वैसी चीज है। तभी तो अर्जुन सबोसे कहता फिरता है । फलत यह गीताधर्म पनप सकेगा ही नहीं। इसीलिये आगेके पांच (६७-७१) श्लोकोमें इसी बातकी चेतावनी देते है कि कैसे लोगोसे ये वाते कही जायँ और कही जायें या नहीं। क्योकि ऐसा भी हो सकता है कि खुद जानने के बाद इसकी चर्चा ही न की जाय और न इसकी जरूरत ही महसूस की जाय । मगर कृष्णको तो फिक्र थी कि समाजहितके लिये