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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/१२२

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गुप्त धन
 

थी। उसका शरीर ऐंठ रहा था। चेहरे पर भी उसी ऐंठन के लक्षण दिखायी दे रहे थे। मुझे देखकर बोली--किरपिन, मेरे पास आ जाओ। मैने शादी करके अपना वचन पूरा कर दिया। इससे ज्य़ादा मै तुम्हे कुछ और न दे सकती थी क्योकि मै अपनी मुहब्बत पहले ही दूसरे की भेट कर चुकी हूँ। मुझे माफ़ करना। मैंने जहर खा लिया है और बस कुछ घड़ियों की मेहमान हूँ।

मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। दिल पर एक नश्तर-सा लगा। घुटने टेककर उसके पास बैठ गया। रोता हुआ बोला--लुईसा, यह तुमने क्या किया! हाय! क्या तुम मुझे दाग देकर इतनी जल्दी चली जाओगी, क्या अब कोई तदबीर नही है?

फ़ौरन दौड़कर एक डाक्टर के मकान पर गया। मगर आह! जब तक उसे साथ लेकर आऊँ मेरी वफा की देवी, सच्ची लुईसा हमेशा के लिए मुझसे जुदा हो गयी थी। सिर्फ उसके सिरहाने एक छोटा-सा पुर्ज़ा पड़ा हुआ था जिस पर उसने लिखा था--अगर तुम्हें मेरा भाई श्रीनाथ नजर आये तो उससे कह देना, लुईसा मरते वक़्त भी उसका एहसान नही भूली।

यह कहकर नाक्स ने अपनी वास्केट के जेब से एक मखमली डिबिया निकाली और उसमे से कागज़ का एक पुर्ज़ा निकालकर दिखाते हुए कहा--चौधरी, यही मेरे उस अस्थायी सौभाग्य की स्मृति है जिसे आज तक मैंने जान से ज्यादा संभालकर रखा है। आज तुमसे परिचय हो गया। मैने समझा था, और दोस्तों की तरह तुम भी लड़ाई मे खत्म हो गये होगे, मगर शुक है कि तुम जीते-जागते मौजूद हो। यह अमानत तुम्हारे सिपुर्द करता हूँ। अब अगर तुम्हारे जी मे आये तो मुझे गोली मार दो, क्योंकि उस स्वर्गिक जीव का हत्यारा मै हूँ।

यह कहते-कहते कप्तान नाक्स फैलकर कुर्सी पर लेट गये। हम दोनो ही की आँखों से आँसू जारी थे, मगर जल्द ही हमे अपने तात्कालिक कर्तव्य की याद आ गयी। नाक्स को सान्त्वना देने के लिए मैं कुर्सी से उठकर उनके पास गया, मगर उनका हाथ पकड़ते ही मेरे शरीर में कँपकँपी-सी आ गयी। हाथ ठडा था। ऐसा ठडा जैसा आखिरी घड़ियों में होता है। मैंने घबराकर उनके चेहरे की तरफ़ देखा और डाक्टर चन्द्र को पुकारा। डाक्टर साहब ने आकर फ़ौरन उनकी छाती पर हाथ रखा और दर्दभरे लहजे में बोले--दिल की धड़कन बन्द हो गयी। उसी वक्त बिजली कड़कड़ा उठी, कड़...कड़...कड़...

—'प्रेमचालीसी' से