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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/१६०

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गुप्त धन
 

पड़े देखकर असह्य वेदना होती थी। उसके जी में बार-बार आता था, चलकर मालिक से कह दूँ––मुझे पुलीस के हवाले कर दीजिए। लेकिन चौधरी साहब बारबार उसे छिपे रहने की ताकीद करते रहते थे।

जाड़ों के दिन थे। चौधरी साहब अपने इलाके का दौरा कर रहे थे। अब वह मकान पर बहुत कम रहते थे। घरवालों के शब्द-बाणों से बचने का यही उपाय था। रात को खाना खाकर लेटे ही थे कि भजनसिंह आकर सामने खड़ा हो गया। उसकी सूरत इतनी बदल गयी थी कि चौधरी साहब देखकर चौंक पडे। ठाकुर ने कहा––सरकार अच्छी तरह हैं?

चौधरी––हाँ, खुदा का फज्ल है। तुम तो बिलकुल पहचाने ही नहीं जाते, इस वक्त कहाँ से आ रहे हो?

ठाकुर––मालिक, अब तो छिपकर नहीं रहा जाता। हुक्म हो तो जाकर अदालत में हाजिर हो जाऊँ। जो भाग्य में लिखा होगा, वह होगा। मेरे कारन आपको इतनी हैरानी हो रही है, यह मुझसे नहीं देखा जाता।

चौधरी––नहीं ठाकुर, मेरे जीते-जी नहीं। तुम्हें जान-बूझकर भाड़ के मुँह में नहीं डाल सकता। पुलीस अपनी मर्जी के माफिक शहादतें बना लेगी, और मुफ़्त में तुम्हे जान से हाथ धोना पड़ेगा। तुमने मेरे लिए बड़े-बड़े खतरे सहे हैं। अगर मैं तुम्हारे लिए इतना भी न कर सकूँ, तो मुझसे बढ़कर एहसानफरामोश और कौन होगा? इस बारे में अब फिर मुझसे कुछ मत कहना।

ठाकुर––कहीं किसी ने सरकार.....

चौधरी––इसका बिलकुल गम न करो। जब तक खुदा को मंजूर न होगा, कोई मेरा बाल भी बाँका नहीं कर सकता। तुम अब जाओ, यहाँ ठहरना खतरनाक है।

ठाकुर––सुनता हूँ, लोगों ने आपसे मिलना-जुलना छोड़ दिया है।

चौधरी––दुश्मनों का दूर रहना ही अच्छा।

लेकिन ठाकुर के दिल में जो बात जम गयी थी, वह न निकली। इस मुलाक़ात ने उसका इरादा और भी पक्का कर दिया। इन्हें मेरे कारन यो मारे-मारे फिरना पड़ रहा है। यहाँ इनका कौन अपना बैठा हुआ है? जो चाहे आकर हमला कर सकता है। मेरी इस जिंदगानी को धिक्कार!

प्रातःकाल ठाकुर जिला हाकिम के बँगले पर पहुँचा। साहब ने पूछा––तुम अब तक चौधरी के कहने से छिपा था?