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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/१९१

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मोटेराम जी शास्त्री
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पण्डितजी पर वेभाव पड़ने लगी। यो तो पण्डितजी भी दमखम के आदमी थे, एक गुप्ती सदैव साथ रखते थे। पर जब धोखे मे कई आदमियो ने घर दवाया तो क्या करते? कभी इसका पैर पकड़ते, कभी उसका। हाय! हाय! का शब्द निरन्तर मुंह से निकल रहा था पर उन वेरहमी को उन पर जरा भी दया न आती थी। एक आदमी ने एक लात जमाकर कहा इस दुष्ट की नाक काट लो।

दूसरा बोला—इसके मुँह मे कालिख और चूना लगाकर छोड़ दो।

तीसरा—क्यो वैद्यजी महाराज, बोलो क्या मजूर है ? नाक कटवाओगे या मुंह मे कालिख लगवाओगे?

पण्डित—हाय, हाय, मर गया और जो चाहे करो, मगर नाक न काटो!

एक—अब तो फिर इधर न आवेगा?

पडित—भूलकर भी नही, सरकार! हाय मर गया!

दूसरा—आज ही लखनऊ से रफूरैट हो जाओ नहीं तो बुरा होगा।

पडित—सरकार, मैं आजही चला जाऊँगा। जनेऊ की शपथ खाकर कहता हूँ। आप यहाँ मेरी सूरत न देखेंगे।

तीसरा—अच्छा भाई, सब कोई इसे पाँच-पाँच लाते लगाकर छोड दो।

पडित—अरे सरकार, मर जाऊँगा, दया करो।

चौथा—तुम जैसे पाखडियों का मर जाना ही अच्छा है। हाँ तो शुरू हो।

पंचलती पड़ने लगी, धमाधम की आवाजे आने लगी। मालूम होता था नगाड़े पर चोट पड़ रही है। हर धमाके के बाद एक बार हाय की आवाज़ निकल आती थी, मानो उसकी प्रतिध्वनि हो।

पँचलत्ती पूजा समाप्त हो जाने पर लोगों ने मोटेराम जी को घसीटकर बाहर निकाला और मोटर पर बैठाकर घर भेज दिया। चलते-चलते चेतावनी दे दी, कि प्रातःकाल से पहले भाग खडे होना, नहीं तो और ही इलाज किया जायगा।

मोटेराम जी लँगड़ाते, कराहते, लकडी टेकते घर में गये और धम से चारपाई पर गिर पड़े। स्त्री ने घबराकर पूछा—कैसा जी है? अरे तुम्हारा क्या हाल है? हाय-हाय' यह तुम्हारा चेहरा कैसा हो गया है!

मोटे०—हाय भगवन, मर गया।