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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२०३

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पर्वत-यात्रा
२०९
 


व्यास—दीनबन्धु, नारि-हठ तो लोकप्रसिद्ध ही है।

कुँअर—अब यह सोचिए कि छोटे साहब से क्या बहाना किया जायगा।

वाजिद—बडा नाजुक मुआमला आ पड़ा हुजूर।

लाला—हाकिम का नाराज हो जाना बुरा है।

वाजिद—हाकिम मिट्टी का भी हो, फिर भी हाकिम ही है।

कुँअर—मैं तो बड़ी मुसीबत में फंस गया।

लाला—हुजूर अब बाहर न बैठें। मेरी तो यही सलाह है। जो कुछ सिर पर पड़ेगी, हम ओढ़ लेगे।

वाजिद—अजी, पसीने की जगह खून गिरा देगे। नमक खाया है कि दिल्लगी है।

कुँअर—हॉ, मुझे भी यही मुनासिब मालूम होता है। आप लोग कह दीजिए बीमार हो गये है।

अभी यही बाते हो रही थी कि खिदमतगार ने आकर हाँफते हुए कहा—सरकार कोऊ आवा है, तौन सरकार का बलावत है।

कुँअर—कौन है पूछा नहीं?

खिद०—कोऊ रेंगरेज है सरकार, लाल-लाल मुंह है, घोड़ा पर सवार है।

कुँअर—कहीं छोटे साहब तो नहीं है, भई मै तो भीतर जाता हूँ। अब आबरू तुम्हारे हाथ है।

कुँअर साहब ने तो भीतर घुसकर दरवाजा बन्द कर लिया। वाजिदअली ने खिडकी से झांककर देखा, तो छोटे साहब खडे थे। हाथ-पाँव फूल गये। अब साहब के सामने कौन जाय? किसी की हिम्मत नहीं पड़ती। एक दूसरे को ठेल रहा है।

लाला—बढ़ जाओ वाजिदअली। देखो क्या कहते है?

वाजिद—आप ही क्यों नहीं चले जाते?

लाला—आदमी ही तो वह भी है, कुछ खा तो न जायगा।

वाजिदतो—चले क्यों नहीं जाते!

काटन साहब दो-तीन मिनट खडे रहे। जब यहाँ से कोई न निकला तो बिगड़-कर बोले यहां कौन आदमी है? कुँअर साहब से बोलो, काटन साहब खड़ा है।

मियाँ वाजिद बौखलाये हुए आगे बढ़े और हाथ बाँधकर बोले—खुदावदा, कुँअर साहब ने आज बहुत देर से खाना खाया, तो तबियत कुछ भारी हो गयी है। इस वक्त आराम में है, बाहर नही आ सकते।

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