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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२१३

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कवच
२१९
 


मजबूर हूँ, क्या वह भी अपने दिल से मजबूर नहीं हो सकती? अगर मुझे कोई औरत बन्धन में डाल दे और बहुमूल्य रत्नो से मेरे प्रेम को विसाहना चाहे, तो क्या मैं उसके प्रेम मे अनुरक्त हो जाऊँगा? शायद नही। मै मौका पाते ही भाग निकलूंगा। यह मेरा अन्याय है। अगर मुझमे वह गुण होते, जो इसके अज्ञात प्रियतम मे है, तो उसकी तबीयत क्यो मेरी ओर आकर्षित न होती? मुझमे वे बाते नहीं है कि मै उसका जीवन-सर्वस्व बन सकूँ। अगर मुझे कोई कडवी चीज अच्छी नहीं लगती, तो मै स्वभावत, हलवाई की दुकान की तरफ जाऊँगा, जो मिठाइयों बेचता है। सम्भव है धीरे-धीरे मेरी रुचि बदल जाय और मै कड़वी बीजे पसन्द करने लगूं, लेकिन बलात् तलवार की नोक पर कोई कडवी चीज मेरे मुंह मे नही डाल सकता।

'इन विचारो ने मुझे पराजित कर दिया। वह सूरत, जो एक क्षण पहले मुझे काटे खाती थी, उसमे पहले से शतगुणा आकर्षण था। अब तक मैने उसको निद्रा- मग्न न देखा था। निद्रावस्था में उसका रूप और भी निष्कलक और अनिन्द्य मालूम हुआ। जागृति मे निगाह कभी आँखो के दर्शन करती, कभी अबरो के, कभी कपोलो के। इस नीद मे उसका रूप अपनी सम्पूर्ण कलाओ से चमक रहा था। रूप-छटा का एक दीपक जल रहा था।'

राजा साहब ने फिर प्याला मुंह से लगाया, और बोले—सरदार साहब, मेरा जोश ठण्डा हो गया। जिससे प्रेम हो गया, उससे द्वेष नही हो सकता, चाहे वह हमारे साथ कितना ही अन्याय क्यो न करे। जहाँ प्रेमिका प्रेमी के हाथो कत्ल हो, वहाँ समझ लीजिए कि प्रेम न था, केवल विषय-लालसा थी। मैं वहाँ से चला आया, लेकिन चित्त किसी तरह शान्त नहीं होता। तब से अब तक मैंने क्रोध को जीतने की भरसक कोशिश की, मगर असफल रहा। जब तक वह शैतान जिन्दा है, मेरे पहलू मे एक कॉटा-सा खटकता रहेगा, मेरी छाती पर साँप लोटता रहेगा। वही काला नाग फन उठाये हुए उस रत्न-राशि पर बैठा हुआ है, वही मेरे और सरफ़राज के बीच में लोहे की दीवार बना हुआ है, वही इस दूध की मक्खी है। उस सॉप का सिर कुचलना होगा, उस दीवार को जड से खोदकर फेक देना होगा, उस मक्खी को निकाल देना होगा, जब तक मैं अपनी आँखो से उसकी धज्जियों बिखरते न देखूगा, मेरी आत्मा को सतोष न होगा। परिणाम की कोई चिन्ता नहीं, कुछ भी हो, मगर उस नर-पिशाच को जहन्नुम वासिल करके दम लूंगा।