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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२१८

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गुप्त धन
 


क्यो?"

'मुझमे वह सामर्थ्य नहीं है।'

राजा साहब ने व्यगपूर्ण नेत्रो से देखकर कहा-शायद आत्मा जागृत हो गयी। क्यो? वही बीमारी, जो कायरों और नामर्दो को हुआ करती है। अच्छी बात है, जाओ।

हुजूर, आप मुझसे नाराज न हों, मै अपने मे वह ...।' राजा साहब ने सिंह की भाँति आग्नेय नेत्रों से देखते हुए गरजकर कहा—मत बको, नमक...

फिर कुछ नम्र होकर बोले—तुम्हारे भाग्य मे ठोकरें खाना ही लिखा है। मैने तुम्हें वह अवसर दिया था, जिसे कोई दूसरा आदमी दैवी वरदान समझता, मगर तुमने उसकी कद्र न की। तुम्हारी तकदीर तुमसे फिरी हुई है। हमेशा गुलामी करोगे और धक्के खाओगे। तुम जैसे आदमियों के लिए गेरुए बाने है और कमण्डल तथा पहाड की एक गुफा। इस धर्म और अधर्म की समस्या पर विचार करने के लिए उसी वैराग्य' की जरूरत है। संसार मर्दो के लिए है।

मै पछता रहा था कि मैंने पहले ही क्यों न इनकार कर दिया।

राजा साहब ने एक क्षण के बाद फिर कहा—अब भी मौका है, फिर सोचो।।

मैने उसी निःशक तत्परता के साथ कहा—हुजूर, मैने खूब सोच लिया है।

राजा साहब होंठ दांतो से काटकर बोले—बेहतर है, जाओ और आज ही रात को मेरे राज्य की सीमा के बाहर निकल जाओ। शायद कल तुम्हे इसका अवसर न मिले। मै न मालूम क्या समझकर तुम्हारी जान बशिश कर रहा हूँ। न जाने कौन मेरे हृदय मे बैठा हुआ तुम्हारी रक्षा कर रहा है। मैं इस वक्त अपने आप में नही हूँ, लेकिन मुझे तुम्हारी शराफत पर भरोसा है। मुझे अब भी विश्वास है कि तुम दीवार के सामने भी जबान पर न लाओगे।

मैं चुपके से निकल आया, और रातों-रात राज्य के बाहर पहुँच गया। मैंने उस चित्र के सिवा और कोई चीज अपने साथ न ली।

इधर सूर्य ने पूर्व की सीमा मे पदार्पण किया, उधर मै रियासत की सीमा से निकलकर अग्नेजी इलाके में आ पहुँचा।

—विशाल भारत, दिसबर १९२९