सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
सौत
२३३
 


पडोसिन ने आग न मॉगी, मुंह फेरकर चली गयी।

रजिया ने कलसा और रस्सी उठायी और कुएँ पर पानी खीचने गयी। बैलो को सानी-पानी देने की बेला आ गयी थी, पर उसकी आँखे उस रास्ते की ओर लगी हुई थी, जो मलसी (रामू का गाँव) को जाता था। कोई उसे बुलाने अवश्य आ रहा होगा। नही, बिना बुलाये वह कैसे जा सकती है। लोग कहेगे, आखिर दौडी आयी न!

मगर रामू तो अचेत पड़ा होगा। दस लघन थोडे नहीं होते। उसकी देह मे था ही क्या। फिर उसे कौन बुलायेगा? दसिया को क्या गरज पडी है। कोई दूसरा घर कर लेगी। जवान है। सौ गाहक निकल आवेगे। अच्छा वह आ तो रहा है कोई। हाँ, आ रहा है। कुछ घबराया-सा जान पड़ता है। कौन आदमी है, इसे तो कभी मलसी मे नही देखा, मगर उस वक्त से मलसी कभी गयी भी तो नहीं। दो-चार नये आदमी आकर बसे ही होगे।

बटोही चुपचाप कुएँ के पास से निकला। रजिया ने कलसा जगत पर रख दिया और उसके पास जाकर बोली—रामू महतो ने भेजा है तुम्हे? अच्छा तो चलो घर, मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ। नहीं, अभी मुझे कुछ देर है, बैलो को सानी-पानी देना है, दिया-बत्ती करनी है। तुम्हे रुपये दे दूं, जाकर दसिया को दे देना। कह देना, कोई काम हो तो बुला भेजे।

बटोही रामू को क्या जाने। किसी दूसरे गाँव का रहनेवाला था। पहले तो चकराया, फिर समझ गया। चुपके से रजिया के साथ चला गया और रुपये लेकर लम्बा हुआ। चलते-चलते रजिया ने पूछा—अब क्या हाल है उनका? बटोही ने अटकल से कहा—अब तो कुछ सम्हल रहे है।

'दसिया बहुत रो-वो तो नहीं रही है?'

'रोती तो नही थी।'

'वह क्यों रोयेगी। मालूम होगा पीछे।'

बटोही चला गया, तो रजिया ने बैलो का सानी-पानी किया, पर मन रामू ही की ओर लगा हुआ था। स्नेह-स्मृतियों छोटी-छोटी तारिकाओ की भाँति मन में उदित होती जाती थी। एक बार जब वह बीमार पड़ी थी, बह बात याद आयी। दस साल हो गये। वह कैसे रात-दिन उसके सिरहाने बैठा रहता था। खाना-पीना तक भूल गया था। उसके मन मे आया क्यो न चलकर देख ही आवे। कोई क्या कहेगा? किसका मुँह है, जो कुछ कहे। चोरी करने नहीं जा रही हूँ। उस