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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/३८३

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गुप्त-निबन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास बहुत कम पत्र थे। संवन १६३६ में इस पत्रका जन्म हुआ। उस समय म्वर्गीय बाबू हरिश्चन्द्रजोके लेखोंकी हिन्दी पढ़नेवालोंमें धूम मची हुई थी। उदयपुरके स्वर्गीय महाराना मजनसिंहजीको भी हिन्दीसे प्रेम हुआ। बाबू हरिश्चन्द्रजीसे हिन्दीके विषयमें उक्त महाराना माहबकी लिखा पढ़ी भी होती थी। उसी परस्पर प्रीतिके फलसे “सजनकीर्ति- सुधाकर” निकला । आश्चर्य नहीं जो इसका नामकरण भी बाबू हरि- श्चन्द्रजी द्वाराही हुआ हो। यह पत्र बहुत धूमसे निकला था। आकार भी खूब बड़ा रखा गया था। इस समय उसका आकार सुपररायल दो शीटके चार पन्ने हैं । शायद यही आकार तब भी था। देशी रियासतोंमें राजनीति सम्बन्धी लेग्योंके लिये स्वाधीनता नहीं, पर दूसरे प्रकारके लेख इस पत्रमें अच्छे निकलने लगे थे। उन दिनों यह वैसाही पत्र था जैसा बाबू हरिश्चन्द्रजीका “कविवचनसुधा" पत्र था। एक बार पण्डित हरमुकुन्द शास्त्रीजी इस पत्रके सम्पादक थे और उसी समय यह पत्र हिन्दीका एक पत्र कहलानेके योग्य भी था। जब तक महाराना सज्जन सिंह जीवित थे, तब तक यह अच्छी दशा में चलता था। सन् १८८४ ईस्वीमें उनका शरीरान्त हो गया। तभोसे इस पत्रका प्राण निकल गया। अब यह केवल ढांचा मात्र है। ___अखबारवालोंके सिवा बहुत कम लोग इम पत्रका नाम भी जानते होंगे। क्योंकि इसके जो कुछ ग्राहक हैं, वह उदयपुर राज्यके भीतरही हैं। हिन्दीके पुराने प्रेमियोंमेंसे किसी किसीको इसका नाम याद है, पर शकल भूल गये। इस पत्रकी पुरानी यादगारमेंसे इसका टाइटल पेज चला आता है, जिस पर कदाचिन् कोई दृष्टि भी न डालता होगा। क्योंकि उसके टाइप घिसते घिसते एक दम सिलपट होगये हैं, अक्षरोंका पढ़ना सहज बात नहीं है। एक अक्षर किसी तरह जान लिया जाता है तो दुसरेके लिये अटकल लगानी पड़ती है । टाइटलके सिरे पर “श्रीएकलिङ्गो